प्राचीन काल में जालंधर नामक एक महापराक्रमी और महाउपद्रवी राक्षस हो गया । उसकी वृंदा नाम की एक परम रूपवती व परम साध्वी पत्नी थी । वृंदा की निष्ठा थी कि ‘जब मेरा पातिव्रत्य अटल है तो मेरे पति का बाल बांका कैसे हो सकता है ?”

हुआ भी ऐसा ही । जालंधर सती वृंदा के पातिव्रत्य-बल से अजेय बन गया । वह मनमाना आचरण कर लोगों को सताने लगा । इससे दैवी वृत्ति वाले लोग दुःखी हुए और भगवान नारायण को पुकारने लगे ।

जालंधर ने देवलोक पर आक्रमण कर इंद्र के साथ युद्ध शुरू कर दिया । भगवान नारायण समझ गये कि जालंधर की यह अजेयता सती वृंदा के पातिव्रत्य का ही प्रभाव है । व्रत से निष्ठा आती है और निष्ठा का संकल्प जालंधर के साथ जुड़कर इसकी रक्षा कर रहा है । जब तक वृंदा का सतीत्व खंडित नहीं होता तब तक यह पापमूर्ति नहीं मरेगा और जब तक यह नहीं मरेगा तब तक समाज का दुःख दूर नहीं होगा ।

भगवान जालंधर के रूप की धारणा करके जालंधर बन गये और वृंदा के पास गये । अपना पति ही युद्ध से लौटा है ऐसा समझकर सती वृंदा ने भगवान नारायण का स्पर्श किया । इससे उसका पातिव्रत्य खंडित हो गया और उधर युद्ध में जालंधर मारा गया ।

जब वृंदा को इस बात का पता चला तो उसने भगवान को शाप दे दिया कि “तुमने मेरे साथ धोखा किया है । तुम्हारा हृदय पाषाण के समान है इसलिए जाओ, तुम पाषाण-स्वरूप हो जाओ ।”

भगवान ने उसके पातिव्रत्य का आदर किया और कहा: “हम शालग्राम के रूप में पाषाण हो जायेंगे और तुम्हारा यह शरीर, जिसे तुम छोड़ दोगी, नदी के रूप में परिवर्तित होगा । वह नदी ‘गंडकी’ के नाम से विख्यात होगी ।

तुम तुलसी देवी के रूप में मेरे साथ ही रहोगी । तुम्हारे केशकलाप से उत्पन्न तुलसी वृक्षों के पत्तों आदि के बिना मेरी पूजा अधूरी मानी जायेगी । तेरे व्रत का, तेरी निष्ठा का आदर होगा । लेकिन वृंदा ! तूने जालंधर के असत् का कवच बनने की गलती की थी । इसलिए जैसे काँटे से काँटा निकलता है, वैसे ही ‘बहुजनहिताय बहुजनसुखाय’ मुझे यह कार्य करना पड़ा क्योंकि जब सत्य असत्य का रक्षक बन जाता है । तो असत्य का नाश कठिन हो जाता है ।

वृंदा ! तेरा सतीत्व जालंधर के असत्य को पोषित कर रहा था, पाप को पोषित कर रहा था और किसी भी कीमत पर वह मर नहीं रहा था । उसको मारने का केवल एक ही उपाय था कि तेरा सतीत्व खंडित हो । फिर भी तेरे सतीत्व का आदर दुनिया करेगी ।

हम एक रूप से शालग्राम बन जायेंगे और गंडकी नदी के तट पर वास करेंगे । हमारी पूजा करनेवाले प्रतिवर्ष तेरा और मेरा विवाह रचायेंगे । इसके फलस्वरूप उन्हें महान पुण्य की प्राप्ति होगी। ” भगवान के वचन सुनकर वृंदा संतुष्ट हुई । तबसे कार्तिक शुक्ल एकादशी से कार्तिक कार्तिकी पूर्णिमा तक ‘तुलसी विवाह’ किया जाता है ।

पातिव्रत्य धर्म भी सत्य की प्राप्ति के लिए है । सारे व्रत और नियमों का फल है ईश्वर की प्राप्ति, सत्य की प्राप्ति, सच्चे रस की प्राप्ति । अपने जीवन में कोई नियम या व्रत जँच जाय कि ‘यह सही है, ठीक है’ फिर उसमें दृढ़ता से लग जाना, इसे व्रत कहते हैं । व्रत का फल होता है निष्ठा । अपनी निष्ठा दृढ़ हो तो कोई भी विघ्न-बाधा या मुसीबत आपके संकल्प-बल से दूर हो जायेगी ।

आपके जीवन में कोई-न-कोई व्रत-नियम होन चाहिए । इससे आपका मनोबल दृढ होगा ।

– ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2004