– पूज्य बापूजी

एक साधु ने एक पुजारी से पूछा : “आप बड़े सज्जन संत हैं, साधु हैं और बुजुर्ग हैं । सच बताओ, आपको भगवान का दर्शन हुआ है कि नहीं हुआ ?”

उनकी आँखों में से आँसू आ गये वे बोले : “इस अभागे के 98 साल हो गये, अभी तक भगवान का दर्शन नहीं हुआ !”

आये हुए साधु आत्मज्ञानी थे । बोले : “हर रोज सुबह-दोपहर-शाम को आप थाल में भोजन रखते हैं, भगवान को भोग लगाते हैं फिर खाते हैं । इसका मतलब यह हुआ कि आप भगवान मानकर जिसके आगे भोग रखते हैं वह भगवान नहीं है !

आप तो बोलते हैं न, भगवान का दर्शन नहीं हुआ तो हर रोज जिसको आप भोजन कराते हैं वह भगवान नहीं है, भगवान की मूर्ति है’ – गहराई में तो आपकी यह मान्यता है और ऊपर-ऊपर से भगवान मानते हैं ।”

मन की गहराई में तो ‘ये भगवान हैं यह स्वीकार नहीं है और सचेतन मन में थोपा हुआ, माना हुआ भगवान है, जाना हुआ भगवान नहीं है । तो यह माना हुआ भगवान सबका अलग-अलग हो सकता है ।

किसी का भगवान कृष्ण है, किसी का तो यह माना हुआ भगवान सबका अलग-अलग हो सकता है । किसी का भगवान कृष्ण है, किसी की भगवान अम्बाजी हैं, किसी का भगवान ईसा है, किसी का भगवान मूसा है लेकिन यह माना हुआ जो भगवान है वह जैसी-जैसी मान्यता बचपन में मिलती है ऐसा-ऐसा माना जाता है ।

नवजात शिशु को पटेल के घर रख दो तो उसका भगवान उमिया माता हो जायेगी और उसी पटेल के शिशु को किसी सिंधी के घर पनपने के लिए रख दो तो उसका भगवान झूलेलाल हो जायेगा । नवजात शिशु को ईसाई के घर रख दो तो उसका भगवान ईसा हो जायेगा । लेकिन ईसा जब क्रॉस पर चढ़ रहे थे तो कितने ही लोगों ने उनको देखा था, उनका दर्शन किया था फिर भी उनको आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ ।

श्रीकृष्णजी का दर्शन तो कइयों ने किया था, श्रीरामजी का दर्शन भी कइयों ने किया था… तो माने हुए भगवान की मूर्ति क्या, जिस भगवान की मूर्ति रखते हो वह भगवान स्वयं भी आ जाय फिर भी हृदय के भगवान को जब तक नहीं जाना तब तक यात्रा चालू है ।

हृदय में स्थित अंतर्यामी ईश्वर जब वृत्ति में आरूढ़ होकर अज्ञान हटा के अपने स्वरूप का अनुभव करा देता है तब आत्मसाक्षात्कार होता है और यात्रा पूरी होती है । उस हृदयस्थ अंतर्यामी से प्रीति और उस पर भरोसा ही बोध की प्राप्ति करा देता है । तब जीव अपने को किसी शरीर में ही सीमित न मानकर अपने सर्वव्यापक स्वरूप का अनुभव कर लेता है और सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाता है । इस मुक्तिपथ में आने वाले विघ्नों से सद्गुरु हमारी रक्षा करते हैं, जिससे यात्रा सरल हो जाती है । इसलिए संत तुलसीदासजी ने कहा है : गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई ।

➢ लोक कल्याण सेतु, मार्च 2020