जो प्रसन्नता और आनंद मुझे ब्रह्मचर्य-व्रत पालन से मिला, वह मुझे नहीं याद आता इस व्रत से पहले कभी मिला हो । – महात्मा गाँधी
खूब चर्चा और दृढ़ विचार करने के बाद १९०६ में मैंने ब्रह्मचर्य-व्रत धारण किया। व्रत लेने तक मैंने धर्मपत्नी से इस विषय में सलाह न ली थी । व्रत के समय अलबत्ता ली । उसने कुछ विरोध न किया । यह व्रत लेते समय मुझे बड़ा कठिन मालूम हुआ । मेरी शक्ति कम थी । मुझे चिंता रहती कि विकारों को कैसे दबा सकूँगा और स्वपत्नी के साथ भी विकारों से अलिप्त रहना एक अजीब बात मालूम होती थी। फिर भी मैं देख रहा था कि यह मेरा स्पष्ट कर्तव्य है । मेरी नीयत साफ थी । इसलिए यह सोचकर कि ईश्वर शक्ति और सहायता देगा, मैं कूद पड़ा ।
अब २० वर्ष के बाद उस व्रत का स्मरण करते हुए सानंद आश्चर्य होता है। संयम-पालन करने का भाव तो मेरे मन में १९०१ से ही प्रबल था और उसका पालन मैं कर भी रहा था । परंतु जो प्रसन्नता और आनंद मैं अब पाने लगा हूँ, वह मुझे नहीं याद आता कि १९०६ के पहले मिला हो क्योंकि उस समय मैं वासनाबद्ध था और हर समय उसके अधीन हो जाने का भय रहता था । किंतु अब वासना मुझ पर सवारी करने में असमर्थ हो गयी । फिर मैं ब्रह्मचर्य की महिमा अधिकाधिक समझने लगा।
ब्रह्मचर्य का सोलह आने पालन करने का अर्थ है – ब्रह्मदर्शन । यह ज्ञान मुझे शास्त्रों के द्वारा न हुआ। यह तो मेरे सामने धीरे-धीरे अनुभवसिद्ध होता गया । उससे सम्बंध रखने वाले शास्त्र-वचन मैंने बाद में पढ़े।
ब्रह्मचर्य में शरीर-रक्षण, बुद्धि-रक्षण और आत्मिक रक्षण सब कुछ है – यह बात मैं व्रत के बाद दिनोंदिन अधिकाधिक अनुभव करने लगा,क्योंकि अब ब्रह्मचर्य को एक घोर तपश्चर्या रहने देने के बदले रसमय बनाना था । उसके बल काम चलाना था, इसलिए उसकी खूबियों के नित नये दर्शन मुझे होने लगे । पर मैं जो उससे इस तरह रस के घूँट पी रहा था, इससे कोई यह न समझे कि मैं उसकी कठिनता का अनुभव नहीं कर रहा था।
आज यद्यपि मेरे छप्पन साल पूरे हो गए हैं, फिर भी उसकी कठिनता का अनुभव होता ही है। मैं यह अधिकाधिक समझता जाता हूँ कि यह अधिसार-व्रत है । अब निरंतर जागरूकता की आवश्यकता देखता हूँ ।
ब्रह्मचर्य पालन करने के पहले स्वादेंद्रिय को वश में करना चाहिए । मैंने खुद अनुभव करके देखा है कि यदि स्वाद को जीत लें तो ब्रह्मचर्य पालन सुगम हो जाता है ।
~लोक कल्याण सेतु/अप्रैल-मई २००५