Tanhaji Story in Hindi [ShivaJi Maharaj Ke Veer Tanaji Malusare Kahani] ~ पूज्य बापूजी के सत्संग-प्रवचन से
एक दिन सुबह शिवाजी महाराज की माँ दातुन कर रही थीं । उन्होंने शिवाजी महाराज से हाथ का इशारा करते हुए कहाः “शिवा ! ये देखो, मैं रोज सुबह दुष्टों का झंडा देखती हूँ । इसका कुछ उपाय करो ।”
शिवाजी महाराज ने सोचा, ‘यह ताना जी का काम है और वे छुट्टी पर हैं । कोई दूसरा इसे नहीं कर सकता ।’ ताना जी शिवाजी महाराज के खास आदमी थे । उनके लड़के की शादी थी इसलिए वे छुट्टी लेकर घर गये थे । शिवाजी महाराज ने आदमी भेजा । तानाजी अपने बेटे को घोड़े पर बिठाकर शादी के लिए भेज रहे थे ।
आदमी ने आकर कहाः “शिवाजी महाराज आपको याद कर रहे थे । कोंढाणा का किला जीतने जाना था लेकिन आपको मैं कैसे बोलूँ ? आपके लड़के की शादी तो आज ही है ।”
ताना जी ने कहाः “शादी है तो वह करता रहेगा । मेरे मालिक ने बुलाया है तो अब कैसे रुकूँ !”
तानाजी नौकर थे, शिष्य तो नहीं थे । इतना वफादार नौकर ! लड़के की शादी होनी होगी तो होगी, नहीं होनी होगी तो नहीं होगी । वापस शिवाजी महाराज के पास चले गये ।
शिवाजी महाराज ने कहाः “तुम शादी छोड़कर आ गये ??”
ताना जी ने कहाः “जब आपने याद किया तो मुझे रुकने की क्या जरूरत ??”
देखो, कैसे-कैसे लोग हो गये ! ताना जी फौज को लेकर गये । पहले के जमाने में किले होते थे । पतली गोह को चढ़ाया…. नहीं चढ़ी । दूसरी बार भी नहीं चढ़ी ।
तीसरी बार बोला कि “नहीं जायेगी तो काट डालूँगा ।”
वह चढ़ गयी । फिर रस्सा बाँधा और सेना कूद पड़ी किले में । ये लोग तो गिने-गिनाये थे और मुगलों की संख्या ज्यादा थी ।
युद्ध का सारा सामान उनके पास था । वे इन पर टूट पड़े । ताना जी के कुछ सैनिक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए, बाकी घबरा गये । एक बूढ़ा सैनिक गया और जिस रस्से के सहारे वे किले में आये थे, उसे काटकर आ गया ।
आकर सैनिकों को कहाः “रस्सा काटकर आ गया हूँ । अब तो उतरने की गुँजाइश भी नहीं है । दीवार से कूदोगे तब भी मरोगे । लड़कर मरो अथवा कूदकर ।”
सैनिकों ने देखा, किसी भी हाल में मरना ही है तो लड़कर मरेंगे । जोश आ गया । लग पड़े और किला जीत लिया ।
ऐसे ही जो लोग संन्यास ले लेते हैं, दीक्षा ले लेते हैं, उन्हें दृढ़ता से आसक्ति रूपी रस्से को काट डालना चाहिए । जैसे हमने भी दाढ़ी रखी और साधुताई के वस्त्र पहन लिये, पूँछड़ा काट दिया तो हमारा काम बन गया ।
मुझे गुरु जी कुछ कहते अथवा थोड़ी प्रतिकूलता लगती तब यदि हम बोलतेः ‘अच्छा गुरु जी ! जाता हूँ ।’ तो हमारा क्या भला होता ! हम गुरु जी के चरणों में कैसे-कैसे रहते थे हमारा दिल जानता है !
हमें कभी ऐसा विचार नहीं आया कि चलो अहमदाबाद चलकर शक्कर बेचें और भजन करें । जब आये हैं तो अपना काम ‘साक्षात्कार’ करके ही जायें । ईश्वर के लिए कदम रख दिया तो फिर कायर होकर क्या भागना ! देर-सवेर संसार से तो रोकर ही जाना है ।
“हमें रोक सके ये जमाने में दम नहीं ।
हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं ।।”
ऐसे दृढ़ निश्चय से व्यक्ति चलेगा तब परमात्मा मिलेगा । नहीं तो न इधर का, न उधर का । संसार दुःखों का घर है । दुःख नहीं देखा है तो संसार में जाओ । ऐसा कौन संसारी है जिसने दुःख नहीं देखा है ?
दो आदमियों को दुःख नहीं दिखता है । एक तो ज्ञानी को नहीं दिखता है और दूसरा जो अत्यंत बेवकूफ है, जिसमें संवेदना नहीं है, उसको आदत पड़ जाती है । नाली के कीड़े को बदबू नहीं आती है । कसाईखाने में कसाई को बदबू नहीं आती है । तुम वहाँ से पसार होओ तो दिमाग खराब हो जाए । कसाई तो वहीं मजे से चाय पियेंगे । आदत पड़ जाती है न !
जैसे जिसे नासूर हो जाए उसे बदबू का असर नहीं होता है, ऐसे ही संसार की परेशानियाँ सहते-सहते लोग नकटे हो जाते हैं । फिर उसी में रचे-पचे रहते हैं और अपने को सुखी भी मानते हैं । जो भगवान के रास्ते चल रहा है उसे कहेंगे कि ‘इसने तो अपना जीवन बिगाड़ लिया । हमारा तो इतना लाख दुकान में है, यह है, वह….’ लेकिन जब मरेगा तो पेड़ बनेगा, कुल्हाड़े सहेगा तब पता चलेगा ।
भैंसा बनेगा, चौरासी लाख शीर्षासन करेगा तब पता चलेगा । कमाया तो क्या किया !
जैसे मटमैले पानी में मुँह नहीं दिखता, ऐसे ही विषय भोगों से सुख लेने की जिसकी रूचि है, समझो उसकी बुद्धि मलिन है, उस मलिन बुद्धि में आत्मा का सुख नहीं आता, श्रद्धा भी नहीं टिकती ।
अपवित्र बुद्धि डाँवाडोल हो जाती है परंतु दृढ़ निश्चय वाले को प्रतिकूलता में भी राह मिल जाती है । दृढ़ संकल्प के बल से मीराबाई ने विष को अमृत में बदल दिया था और विषधर सर्प भी नौलखा हार बन गया था । स्वामी रामतीर्थ भी दृढ़ता से लगे तो अपने परम लक्ष्य तक पहुँच गये ।
कहते हैं कि महात्मा बुद्ध भी वृक्ष के नीचे दृढ़ संकल्प करके बैठे और अंत में लक्ष्यप्राप्ति करके ही उठे । ऐसे ही आप भी ईश्वरप्राप्ति का दृढ़ संकल्प करें और संसार की आसक्ति रूपी रस्सा काट दें तो निश्चित ही आपकी विजय होगी ।
~ स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 28,29 अंक 225