बचपन में रंग अवधूत महाराज का नाम पांडुरंग था | उनके घर की आर्थिक स्थिति कमजोर थी | एक बार उनके पास महाविद्यालय की फीस भरने के लिए पैसे नहीं थे | फीस भरने का अंतिम दिन आ गया |
कुछ सहपाठी मित्र आये और बोले :- “ हम तुम्हारी फीस भर देते हैं, फिर जब तुम्हारे पास पैसे आयें तो दे देना | “
पांडुरंग :- “ नहीं, मैंने उधार न लेने का प्रण किया है | मैं किसीसे भी उधार नहीं लूंगा | ”
जो नियम, व्रत या शुभ संकल्प करते हैं और उसमें लगे रहते हैं तो भगवान उनपर प्रसन्न होते हैं |
दूसरे मित्र ने कहा :- “ अच्छा, उधार नहीं लेते तो कोई बात नहीं | बडौदा में ऐसी कई संस्थाएँ हैं जो छात्रवृत्ति देती हैं…. एक संस्था है वह तो तुरंत दे देती है | ”
” नहीं, किसीका दान मैं नहीं लूँगा | ऐसा मैंने निर्णय किया है | विद्यार्थी–जीवन में किसी से पैसे लेकर पढूँ ! नहीं, मेरी मेरे गुरु में और भगवान में अटूट निष्ठा है | मेरे गुरु अगर मुझे आगे पढ़ाना चाहेंगे तो पैसे भेज देंगे, नहीं चाहेंगे तो पढाई पूरी ! परीक्षा में नहीं बैठूँगा | ”
कैसी भी परिस्थिति में पांडुरंग की अपने गुरु के प्रति श्रद्धा डगमगाती नहीं थी |
इतने में एक अनजान आदमी प्रेमपूर्वक पूछता हुआ दरवाजे पर आया :- “ पी. वी. वलामे इस कमरे में रहते हैं ??? “
पांडुरंग :- “ आपको उनसे क्या काम है ? ”
अनजान आदमी :- “ उनको कर्ज के पैसे लौटाने हैं | ”
पांडुरंग :- “ आप शायद नाम भूल रहे हैं | किसी दूसरे कमरे में खोजिये | ”
विद्याथियों ने इशारे से कहा :- ” यही है | “
उस व्यक्ति ने कहा :- “ मुसीबत में आपने हमारी इज्जत बचाई थी | मैं आपका जितना उपकार मानूँ उतना कम है | ”
पांडुरंग :- “ पर मैंने किसीको पैसे दिये ही नहीं !! ”
अनजान आदमी :- “ वर्षों पहले हमारी आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब हो गयी थी, तब आपकी मातुश्री ने मेरे पिताजी को तीन सौ रूपये दिये थे | मरते समय मेरे पिताजी मुझे बोल गये थे कि- “ मैं तो नहीं चुका सका पर तू मेरा ऋण ब्याज सहित चुका देना | ”
मैंने पिता को वचन दिया है…. अभी डेढ़ सौ रुपया तो इकठ्ठा हो गया है…. यह आप ले लो | बाकि के पैसे मैं ब्याजसहित चुका दूँगा | ”
उस जमाने में डेढ़ सौ रूपये का डेढ़ तोला सोना मिलता था | उस जमाने के डेढ़ सौ यानी अभी के कई हजार हो गये |
पांडुरंग जी संतह्रदय थे| बोले : “ नहीं–नहीं, तुम चिंता नहीं करना | इनसे मेरी फीस भर जायेगी | ब्याज की बात तो करना ही नहीं, बाकी का पैसे भी तुमको अनुकूल हो तो देना, इसकी चिंता नहीं करना | ”
पांडुरंग की आँखे भर आयीं कि- ‘ कैसा है मेरा गुरु–तत्व ! कैसा है प्रभु ! आज मेरे पास पैसे नहीं हैं तो कैसे इनको प्रेरित किया है !!! ”
हरि अनंत, उसकी लीला अनंत, उसके नाम अनंत, उसका सामर्थ्य अनंत…..!!!!
नारेश्वर (गुजरात ) के जंगल में मुझे तो सुबह विचार आया था लेकिन फल–दूध लानेवाले बोलते थे कि- “ हमको तो रात को सपने में भगवान ने यह पगडंडी दिखाई और आपका आभास हुआ | ”
सोचा मैं न कहीं जाऊँगा, यहीं बैठकर अब खाऊँगा ।
जिसको गरज होगी आयेगा, सुष्टिकर्ता खुद लायेगा ।।
कैसा है वह प्रेरक ! पांडुरंग को भी प्रेरित करनेवाला आत्म–पांडुरंग है…… और देनेवाले का प्रेरक भी वही पांडुरंग है……..
पांडुरंग मन लगाकर अभ्यास कर रहे थे पर जब परीक्षा का समय आया तो वे बीमार पड़ गये | बीमारी बढ़ती गयी | बडौदा में ठीक नहीं हुए तो गोधरा (गुज.) ले जाए गये | डॉक्टर ने कहा :- तुम परीक्षा में नहीं बैठो, तबीयत लथड़ गयी है, अनुत्तीर्ण हो जाओगे ।माँ तथा संबंधियों ने भी मना किया पर पांडुरंग तो दृढ़निश्चयी थे |
पांडुरंग के एक परिचित बंगाली संन्यासी जो ज्योतिशास्त्र के अच्छे जानकार थे, मिलने को आये | पांडुरंग की जन्मकुंडली देखकर समझाने लगे कि- “तुम्हारे ग्रह इस साल तुमको परीक्षा नहीं देने देंगे | यदि तुम दोगे तो उत्तीर्ण नहीं हो सकोगे | तबीयत तो ख़राब है फिर अनुत्तीर्ण होने को क्यों बैठते हो परीक्षा में ??? ” वे बार–बार आते और समझाते लेकिन पांडुरंग को अपने गुरु के ऊपर पूरा भरोसा था | वे कहते :- “ नहीं, मुझे तो गुरुदेव की प्रेरणा हुई है…. मैं तो इस साल ही परीक्षा दूँगा और अच्छे अंकों से पास होऊँगा |”
उन्होंने परीक्षा दी तो द्वितीय श्रेणी में पास हो गये | ज्योतिषी के ज्योतिष को भी झूठा कर दिया क्योंकि गुरु में श्रध्दा थी | डॉक्टर के डॉक्टरी–विज्ञान को भी झूठा कर दिया क्योंकि गुरुमंत्र में…, गुरु में श्रद्धा थी |
जिनकी गुरु में और गुरुमंत्र में श्रद्धा है; उनको ज्योतिषियों के पास भटकने की जरूरत नहीं है….. उनको डॉक्टर के ऑपरेशन के चक्कर में आने की जरूरत नहीं पड़ती….. कई आपदाएँ ऐसे ही चली जाती हैं थोड़े से ही उपाय से | तो वे लोग खूब–खूब भाग्यशाली हैं जिनके जीवन में भगवन्नाम की दीक्षा है |
कठिया बाबा को एक संत मिले और उपदेश मिला तो महान सिध्द्पुरुष हो गये | नरेंद्र को रामकृष्ण मिले तो स्वामी विवेकानंद हो गये | रामजी को वशिष्ठ गुरु मिले तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम होकर अभी भी सम्मानित हो रहे हैं | श्रीकृष्ण को सांदीपनी गुरु मिले और दूसरे संतों का सम्पर्क करते थे तो शत्रुओं के बीच भी उनकी बंसी बजती रही | ब्रम्हज्ञानी सद्गुरु की महिमा लाबयन है !
-स्त्रोत ऋषिप्रसाद जून २०१३ से