सत्पुरुषों का, सद्गुरुओं का हृदय कैसा करुणामय होता है इसका वर्णन करने की शक्ति मेरी जिह्वा में नहीं है…. उन्हें नापने की ताकत किसी में भी नहीं है। -पूज्य बापूजी

गुरुजी घूमने के लिए निकले थे। वे जहाँ रोज बैठते थे वहाँ आगे एक जंगली पौधा था जिसे ‘बिच्छू’ का पौधा कहते हैं। उसके पत्तों को यदि हम छू लें तो बिच्छू के काटने जैसी पीड़ा होती है।

मैंने सोचा कि ‘गुरुजी आयेंगे और यहाँ बैठेंगे… यह बिच्छू का पौधा बड़ा हो गया है। अगर यह गुरुदेव के श्रीचरणों को अथवा हाथों को छू जायेगा तो गुरुदेव के शरीर को पीड़ा होगी।’

मैंने श्रद्धा और उत्साहपूर्वक सावधानी से उस पौधे को उखाड़कर दूर फेंक दिया। गुरुजी ने दूर से यह देखा और मुझे जोर से फटकाराः

“यह क्या करता है?”

मैंने खुलासा कियाः “गुरुजी ! यह बिच्छू का पौधा है। कहीं छू न जाये।”

प्राणीमात्र के परम हितैषी, सब जीवों के कल्याण का ध्यान रखने वाले गुरुजी ने करूणा से भरकर दयार्द्र कोमल वाणी में कहाः

‘बेटा ! मैं रोज यहाँ बैठता हूँ… सँभलकर बैठता हूँ…. इस पौधे में भी प्राण हैं। उसे कष्ट क्यों देना ?”

महापुरुषों का, सदगुरुओं का हृदय कितना कोमल होता है !

वैष्णवजन तो तेने कहिए, जे पीड़ पराई जाणे रे….

परदुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे….

जिसके स्पर्शमात्र से बिच्छू के काटने जैसी पीड़ा होती है, ऐसे पौधे को गुरुजी के बैठने की जगह से मैंने दूर किया तो गुरुजी ने मुझे अच्छी तरह से फटकारा। फटकार में करुणा तो थी ही, साथ-ही-साथ ज्ञान भी था। मुझे अभी तक वह याद है। मैंने गुरुदेव के हित की भावना से वह काम किया था परन्तु किसी का हित साधने की वृत्ति से भी किसी को पीड़ा हो ऐसा काम अपने हाथ से नहीं होना चाहिए।

गुरुदेव ने कहाः “जा, कहीं गड्ढा खोदकर उस पौधे को फिर से लगा दे।”
मैं उस पौधे को लगाकर पुनः आया तब गुरुजी ने फिर से पूछाः “क्या लगा दिया ?”

“हाँ साँई !”

“अच्छा बेटा ! अब ध्यान रखना।”

इन ‘ध्यान रखना’ शब्दों में कितनी करूणा थी ! अब बिच्छू के पौधे का ध्यान रखना तो ठीक, मेरे सामने जो भी आते हैं उन सबका ध्यान रखने का भाव गुरुकृपा के कारण बन जाता है। गुरुदेव के शब्द तो केवल दो ही थे परन्तु उनके पीछे जो करूणा एवं प्रेरणा छुपी हुई थी उसका मापतौल कोई नहीं कर सकता।