नैमिषारण्य ( जो लखनऊ के पास है ) में शबर जाति का कृपालु नाम का एक व्यक्ति ʹवृक्ष-नमनʹ मंत्रविद्या जानता था। उसकी विद्या में ऐसा प्रभाव था कि खजूर के वृक्ष झुक जाते थे और उनका रस वह एकत्र करता था। महर्षि वेदव्यासजी को वह मंत्र जान लेने की जिज्ञासा हुई। व्यास जी उसके पास जाते तो कृपालु भाग जाता था।
जब बहुत बार व्यास जी निराश होकर लौटे तो उसके बेटे को उन पर दया आ गयी।
वह बोलाः “आप जैसे महापुरुष हमारे घर आयें और हमारे पिता जी न मिलें, यह ठीक नहीं लगता। आखिर आपको हमारे पिता जी से क्या काम है ?”
वेदव्यासजी बोलेः “मैं उनसे ʹवृक्ष नमन विद्याʹ का मंत्र लेना चाहता हूँ।”
“महाराज ! यह छोटी सी बात तो मैं ही बता दूँ आपको।” थोड़ी विधि करा के बेटे ने मंत्र दे दिया।
कृपालु शबर आया तो बेटे ने सारी हकीकत बता दी। वह नाराज हो गया कि “मूर्ख है तू ! वेदव्यासजी इतने बड़े महापुरुष हैं, उन्हें हम मन्त्र कैसे दे सकते हैं ! अगर हम मंत्र दें और उनमें श्रद्धा नहीं हो तो मंत्र सफल नहीं होगा। जो मंत्र और मंत्रदाता का आदर नहीं करता उसको मंत्र फलता नहीं है।”
तू जा और देख, व्यासजी मंत्र देने वाले का आदरपूजन करते हैं कि नहीं करते ? अगर नहीं करेंगे तो उनको मंत्र नहीं फलेगा।”
शबरपुत्र वेदव्यास जी के पास गया तो उस समय ऋषि, मुनि, तपस्वी, हजारों लोगों से और राजाओं से सम्मानित होने वाले व्यक्ति भी व्यास जी के चरणों में बैठे थे। व्यासजी की नजर जब शबरपुत्र पर पड़ी तो वे उठकर उसका स्वागत करने गये और आसन पर बैठाकर उसका सत्कार किया। वह दंग रह गया कि ʹभगवान श्री कृष्ण जिनका आदर करते हैं ऐसे भगवान व्यासजी ने मेरा सत्कार किया !ʹ
घर जाकर अपने पिता को सारा वृत्तांत सुनाया। तब उसके पिता ने कहाः “सचमुच, व्यासजी महान हैं।”
व्यास जी की विशाल बुद्धि एवं नम्रता का सदगुण, मंत्रदाता का आदर और मंत्र पर श्रद्धा विश्वास हमें बहुत कुछ सिखाता है।