Muslim Community Maulana Jalaluddin Rumi Ki Guru Bhakti Story in Hindi

सूफी सम्प्रदाय में मौलाना जलालुद्दीन रूमी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है । इनका घर था बलख (ईरान) में और पिता का नाम था शेख बहाउद्दीन ।

बचपन में इन्हें सब प्रेम से जलाल कहकर बुलाते थे । बालक जलाल अपनी उम्र के अन्य बालकों से बिल्कुल अलग स्वभाव का था ।

जब बच्चे उससे कहते :”चलो जलाल ! पतंग उड़ायें।” तो वह कहता :”जिंदगी की जो पतंग उड़ती जा रही है, मौत जिसे काट देगी, मुझे उसकी फिक्र है ।” और वह एकांत में खुदा की याद में खोया रहता…, एकाकी.., निश्चल…।

बड़े-बूढ़े कहते : “क्या सुनमुन बैठा रहता है ! यह तो खेलने-कूदने की उम्र है । जा, मौज-मजा कर ।”

वह कहता : “मेरा मजा मेरे रब की याद में है । मेरा मुँह उसके नाम-जप से मीठा हो जाता है ।”

जलाल के पिता सूफी संत थे । अतः बालक के हृदय पर उपासना के संस्कार दृढ़ता से पड़ गये । परिवार के धार्मिक माहौल में ईमानदारी, पर दुःखकातरता, स्नेह-सौहार्द, सरलता जैसे सद्गुण जलालुद्दीन के जीवन में सहज ही विकसित हो गये । अध्यात्मिक शास्त्रों का अध्ययन व संत-महात्माओं के सत्संग से उनका विवेक निखर उठा और हृदय में परमात्म प्राप्ति की तीव्र लालसा जाग्रत हो उठी । देश-विदेश से सत्शास्त्र मँगाकर वे उनका अध्ययन करते और खुदा तक पहुँचने का रास्ता ढूंढते ।

जहाँ चाह- वहाँ राह ! ३७ वर्ष की उम्र में उन्हें उनके रहनुमा-सद्गुरु मिल गये, जिनका नाम था “शम्स तब्रेज”।

सद्गुरु की कृपा से उनके हृदय के सारे संदेह दूर हो गये। निरुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिल गये। खुदा की खुदाई में वे खुद डूब गये ।
फिर उन्होंने कहा :
आं बादशाहे-आलम दर बस्ता बूद मुहकम ।
पोशीद दलक-आदम यअमी कि बर दर आमद ।।

“शहंशाहों के शहंशाह ने शरीर के अंदर बैठकर मजबूती से दरवाजा बंद किया हुआ है । फिर वह खुद ही इन्सानी जामा पहनकर (सद्गुरु का रूप लेकर) उसे खोलने आता है ।”

वे लिखते हैं :”मैं मामूली मौलवी कभी मौलाना नहीं बन सकता था अगर शम्स तब्रेज के दीदार न होते । हाजी मक्के की परिक्रमा करते हैं लेकिन मैं यार की परिक्रमा करता हूँ । मैं गुरु का दास हूँ और उनके दीदार का प्यासा हूँ ।”

पहले रूमी का अधिकांश समय पढ़ने-लिखने व उपदेश देने में व्यतीत होता था । उन्होंने शिष्य भी बना रखे थे पर जब सच्चे रहनुमा मिल गये तो उन्होंने सबसे मुख मोड़ लिया और खुदा की बंदगी में डूबे रहने लगे। वे कहते हैं : ‘मैं’ ‘तू’ हो गया और ‘तू’ ‘मैं’ हो गया । मैं जिस्म हो गया, तू उसकी जान; अब कोई नहीं कह सकता कि “मैं” और हूँ और ‘तू’ कोई और है ।

➢ लोक कल्याण सेतु, मई-जून 2009