राजा सूर्यसेनमल संत पीपा जी (Sant Pipa ji) का भक्त था लेकिन उसके राज्य में कुछ लोग पीपा जी से बहुत द्वेष करते थे।
एक दिन दरबारियों व कुछ निंदकों ने भरे दरबार में संत पीपा जी व उनकी पत्नी के ऊपर घृणित आरोप लगा दिये।
अभागा राजा निंदकों की बातों में आ गया और कहने लगा :- “यह बड़ी घटिया बात है । उसको अपने सतगुरु (Satguru) पीपाजी में संशय हो गया, अश्रद्धा हो गई। उसने गुरुदेव का बताया हुआ धर्म-कर्म छोड़ दिया।”
हालांकि संत को किसी से कोई अपेक्षा नहीं होती वह अपने आप में पूर्ण संतुष्ट व तृप्त होते हैं। इसके बावजूद वे शिष्य की सूझबूझ,आध्यात्मिक स्थिति एवं साधना बनी रहे तथा उसके द्वारा की हुई सेवा का फल नष्ट ना हो जाए… इस हेतु प्रयत्न करते नजर आते हैं। इसका कारण है उनका परम दयालु व कृपालु स्वभाव तथा हमारे कल्याण की तीव्र भावना !!
संत पीपाजी (Sant Pipa ji) को राजा की स्थिति के बारे में मालूम पड़ा तो उन्हें उस पर दया आई। राजा को फिर से उन्नति के पथ पर लाने के उद्देश्य से भी दरबार में गए और अपने आने की सूचना भेजी। राजा ने सेवक को कहा :- “जा के कह दो मैं पूजा कर रहा हूँ।”
पीपा जी बोले :- “राजा बड़ा मूढ़ है। वह तो मोची के पास बैठकर जूता बनवा रहा है और नाम पूजा का लेता है!”
द्वारपाल से पीपाजी के ये शब्द सुनकर राजा नंगे पाँव दौड़ा और उनके चरणों में पड़ा।
पीपाजी बोले :- “गुरु का अनादर और भगवान की पूजा के समय मन दूसरी जगह रखना,यह कौन सी नीति-रीति है ?”
राजा क्षमा माँगते हुए बोला :- “हे गुरुदेव ! मुझ मंदबुद्धि ने आपकी महिमा को नहीं जाना था। अब आप मेरे ऊपर कृपा कीजिए।”
फिर राजा ने निंदकों द्वारा बहकाये जाने की सारी बातें कह सुनायीं ।
पीपाजी बोले :- ”अरे जिस दिन तू शिष्य हुआ था, उस दिन का अपना निश्चय स्मरण कर।
रानी,राज्य आदि की लाज छोड़ के किस प्रेम रंग में रंगा था, सो रंग तेरा कहाँ गया ? कहाँ गयी तेरी सूझबूझ ! तेरे पास जब गुरुकृपा का प्रत्यक्ष अनुभव था तो उसका सहारा न लेकर निगुरे निंदकों के बहकावे में क्यों आ गया ? जो खुद नरकगामी हो रहे हैं, ऐसे लोग तुझे क्या मार्ग दिखायेंगे ? तू किन्हें अपना मानता है – जो स्वार्थसिद्धि के लिए तेरा उपयोग करते हैं उन्हें या जो तेरा सच्चा हित चाहते हैं ऐसे सद्गुरु को ? निंदक लोग स्वार्थसिद्ध होने तक ही तेरा साथ देंगे फिर तुझे छोड़ देंगे…जबकि गुरु, तू राजा रहेगा तब भी तेरे हैं और रंक हो जाय तब भी तेरे रहेंगे।”
गुरु का उपदेश राजा सूर्यसेनमल के मन में बस गया। भगवद्भजन और साधु-सेवा में वह पहले से अधिक तत्पर व दृढ़ हो गया।
गुरु और गुरुमंत्र शिष्य का तब तक पीछा नहीं छोड़ते हैं, जब तक शिष्य मुक्त नहीं हो जाता। किसी भी परिस्थिति में संतों में दोषदर्शन न होने दें, उनसे विमुख न हों । दृढ संकल्पवान बनें, सारी दुनिया उलटी होकर टँग जाय लेकिन प्रभुभक्ति का मार्ग छूटने नहीं देना चाहिए।
🔖परिस्थितियाँ कैसी भी आयें, कसौटी कैसी भी हो पर हर शिष्य के हृदय की पुकार होनी चाहिए :
ध्रुव अगर जगह से टले तो टल जाय।
हिमालय वायु की ठोकर से भी फिसल जाय।
समुद्र भी जुगनू की दुम से जल जाय।
पर हे कृपालु गुरुवर !
इस हृदय से तेरा प्यार कम न होने पाये ॥