आज हम जानेंगे : अम्माजी की पूज्य बापूजी में निष्ठा और सच्चे हृदय की प्रार्थना बापूजी को खींच के लेके आयी।
परम पूजनीया माँ महँगीबाजी की पूज्य बापूजी में ऐसी अनोखी श्रद्धा एवं दृढ गुरुभक्ति थी कि वे अपनी सरल व निर्दोष भक्ति के कारण अकसर बापूजी का प्रेम तथा ज्ञान सम्पादन कर लिया करती थीं । उन दिनों अम्मा हिम्मतनगर आश्रम में रहती थीं, पूज्य बापूजी भी एकांतवास के दौरान वहाँ पधारे हुए थे ।
बापूजी जब घूमने निकलते तो प्रायः अम्मा से मिलकर ही कुटिया में वापस जाते थे । अम्मा भी दर्शन के लिए व्याकुल रहतीं, पहले से ही कुर्सी तैयार रखवाती थीं और कभी आगे से तो कभी पीछे मुड़कर आवाज लगातीं : ‘ओ दयालु प्रभु ! थोड़ी देर तो बैठो ।’
पूज्य बापूजी को हिम्मतनगर से हरिद्वार जाना था । उन दिनों अम्मा की गुरु-दर्शन की तड़प इतनी बढ गयी थी कि वे बापूजी का विछोह सहन नहीं कर पाती थीं । वैसे तो बापूजी कहीं भी जाते तो अम्मा को प्रणाम करके ही जाते थे, परंतु इस बार वे अम्मा से मिले बिना ही चले गये ताकि अम्मा को दुःख न हो ।
पूज्य बापूजी के हरिद्वार-प्रस्थान के बाद भी इधर अम्मा को बापूजी के साक्षात् दर्शन होते थे । बापूजी उन्हें गुदगुदी करते थे, ‘हरि हरि बोल बुलवाते हुए हाथ ऊँचे करवाकर हँसाते थे । सेविका को बापूजी के दर्शन नहीं होते थे, सिर्फ अम्मा की क्रियाएँ ही दिखती थीं । इन्हीं मधुर अठखेलियों में एक दिन अम्मा ने देखा कि बापूजी चक्कर लगाकर जा रहे हैं और मुझे मिलने नहीं आ रहे हैं । ‘तो क्या वे मुझसे रूठ गये हैं ? ऐसा सोचकर अम्मा विरह व्यथा से बेचैन हो गयीं । इस तरह विरह-विरह में एक दिन, दो दिन बीते… अम्मा पुकारने लगीं : ‘‘मेरे शाहों के शाह ! मेरे दयालु ! मेरे बाबा ! मेरे पुत्र !… सामने कुटिया में बैठे हो और दर्शन नहीं देते ? मुझसे क्यों बिछुड गये हो ? मुझसे क्यों दूर हो गये हो ? तीसरे दिन अम्मा खूब उदास हो गयी और बोलने लगीं : ‘‘बापूजी तो ऐसा कहते हैं कि ओ मेरी प्यारी माँ !
तुम कहीं भी होगी, मैं तुम्हें ढूँढ निकालूँगा । फिर क्यों नहीं आते हैं ?
अब अम्मा अत्याधिक रोने लगी थीं । उनकी विरह व्यथा सीमा पार कर रही थी । अम्मा कहने लगीं : ‘‘आज-के-आज मुझे साँई के पास ले चलो या साँई को यहाँ बुलाओ, नहीं तो मैं मर जाऊँगी । अंतर्यामी पूज्य बापूजी से कहाँ बेखबर रहनेवाली थी भक्त की पुकार ! अम्मा अभी तो बोल ही रही थीं कि इतने में फोन के द्वारा पूज्य बापूजी का संदेश मिला कि अम्मा हिम्मतनगर से अहमदाबाद के लिए निकलें, साँई हरिद्वार से अहमदाबाद के लिए निकल रहे हैं । सच ही तो कहा है :
सच्चे हृदय की प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है । भक्तवत्सल के कान में, पहुँच झट ही जाय है ।।
●अहमदाबाद में साँई के दर्शन करके अम्मा भावविभोर हो गयीं : ‘‘कुर्बान जाऊँ… बलिहार जाऊँ… आज आप आ गये नहीं तो पता नहीं क्या हो जाता ! मैं सुबह से रो रही थी । बापूजी : ‘‘मेरे भी मन में हुआ कि अम्मा बहुत याद करती हैं । मैंने फोन करवाया तो पता लगा कि मेरी जीजल माँ बहुत रो रही हैं । मैं उसी समय वहाँ से निकला और यहाँ पहुँच गया । फिर अम्मा साँई का हाथ पकडकर पूछने लगीं : ‘‘आपका नाम क्या है ?
साँई : ‘‘आशाराम ।
‘‘नहीं ।
‘‘आसू ।
‘‘नहीं ।
‘‘हँसमुख (पूज्यश्री के बचपन का नाम)
‘‘नहीं ।
देखो तो, मैं आपका नाम भी भूल गयी क्या ?
मैंने आज कितने नामों से पुकारा पर आप आये नहीं । अब आप ही कहो कि कौन-से नाम से पुकारूँ तो आप आओगे ?
अम्मा के हृदय के प्रेम की गहराई को देखकर पूज्य बापूजी का हृदय उनके प्रति एकदम छलक गया, मानो वे अपना ब्रह्मज्ञान का खजाना लुटाने लगे और उछलकर बोले : ‘‘मैं भी ब्रह्म हूँ और अम्मा भी ब्रह्म हैं ।
अम्मा : ‘‘हाँ ।”
धन्य था अम्मा का उत्कट प्रेम कि जिससे उन्होंने हँसते-खेलते ब्रह्मज्ञान को पा लिया !
अम्मा की पूज्य बापूजी में निष्ठा और सच्चे हृदय की प्रार्थना बापूजी को खींच के लेके आयी।