“मैं एक ही जप करता हूँ, ʹनाथ केवल एक है, एकनाथ सत्य है। नाथ केवल….. ʹ मैं आपके नाम का ही जप करता रहता हूँ।”
एकनाथ जी के आश्रम में गावबा नाम का उनका एक भक्त था। भोजन में वह पूरणपूड़ी ही खाता था। रोटी सब्जी, दाल, चावल, दूसरा कुछ उसे अच्छा नहीं लगता था। लोग उसका नाम भूल गये, ʹपूरणपूड़ाʹ कहकर बुलाने लगे।
एक दिन एकनाथ जी महाराज ने गावबा को बुलाया की “बेटे ! आज मैं तेरे को मंत्रदीक्षा देता हूँ। तू उस मंत्र का जप करना।”
गावबा ने कहाः “गुरुजी ! मैं तो एक जप करता हूँ।”
“तूने किसी और गुरु से दीक्षा ली है ?”
“मेरे को आप पूर्ण गुरु मिल गये हैं, मैं फिर और कहीं से दीक्षा क्यों लूँ !”
“मैंने तो तुझे दीक्षा दी नहीं !”
“पर मैं जप करता हूँ।”
“कौन सा जप करता है तू ?”
“मैं एक ही जप करता हूँ, ʹनाथ केवल एक है, एकनाथ सत्य है। नाथ केवल…ʹ मैं आपके नाम का ही जप करता रहता हूँ।”
एकनाथ जी ने देखा कि लोग भले इसे कुछ भी समझते हों, इसकी तो रग-रग में गुरुभक्ति समायी हुई है। एकनाथ महाराज का हृदय उसके प्रति और छलका और एकनाथ जी महाराज जो ग्रंथ लिख रहे थे ʹभावार्थ रामायणʹ, उसे एकनाथ जी के बाद उनके इसी सत्शिष्य गावबा ने ही पूरा किया।
ʹमैं केवल संतों का दास हूँ…ʹ
संत एकनाथ महाराज कहते हैं कि “मैं केवल संतों का दास हूँ तथा किसी अन्य के आश्रित नहीं रहता हूँ। संत-समागम से सुख की राशि प्राप्त होती है। इसलिए मैंने संत-चरणों का आश्रय लिया है। पाँच इन्द्रियाँ महापातकी एवं विश्वासघाती हैं। इनके चंगुल से बचने के लिए संतसेवा उत्तम है।”