एक बार मालवीय जी के पास एक धनी सेठ अपनी कन्या के विवाह का निमन्त्रण-पत्र देने आये। संयोग से जिस युवक के साथ उनकी कन्या का विवाह होने वाला था, वह मालवीय जी का शिष्य था।
मालवीय जी ने सेठ जी से कहाः “प्रभु की आप पर कृपा है। सुना है कि आप इस विवाह पर लाखों रूपये खर्च करने वाले हैं। इससे धन प्रदर्शनादि में व्यर्थ ही चला जायेगा। वह राशि आप हमें ही दहेज में दे दें ताकि इससे हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण का शेष कार्य पूरा हो सके।
लड़के का गुरु होने के नाते मैं यह दक्षिणा लोकमांगल्य के कार्य के लिए आपसे मांग रहा हूँ।” मालवीय जी के इस कथन का उन सेठ पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने विवाह में ढेर सारा खर्च करने का अपना विचार बदल दिया।
उन्होंने अत्यन्त सादगी से न केवल आदर्श विवाह किया अपितु विश्वविद्यालय में अनेक भवन भी बनवा दिये। लोगों ने भी कहाः ‘दहेज हो तो ऐसा !’
निंदा का केन्द्र बनी हुई दहेज जैसी कुप्रथा को भी मालवीय जी की जनहित की पवित्र भावना ने एक नया ही रूप प्रदान किया कि शादियों में लाखों रूपये खर्च करने वाले व लाखों रूपये वर या वधू पक्ष को दहेज में देने वाले लोग यदि इन कार्यों को सादगी से सम्पन्न कर उसी धन को समाजसेवा के दैवी कार्य में लगायें तो उनका व समाज का कितना मंगल होगा !
समाज-ऋण से कुछ हद तक उऋण होने का कितना दिव्य आनंद उन्हें प्राप्त होगा ! नवविवाहित दम्पति को समाज के कितने आशीर्वाद प्राप्त होंगे तथा उन्हें अपने गृहस्थ-जीवन में समाजसेवा की कितनी सुंदर प्रेरणा मिलेगी !