भगवान में जिसकी प्रीति होती है वह अहंकार को नहीं पोषता है ।
-पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

एक बार गाँधीजी ने विनोबा भावे को एक पत्र लिखा । छात्रों के सामने ही वह पत्र आया और विनोबाजी उनके सामने ही पढ़ने लगे । पत्र पढ़कर उनके चेहरे पर चिन्तन की रेखाएँ उभर आयीं । वे कुछ विचारमग्न हो गए,फिर उन्होंने वह पत्र फाड़ दिया ।

आश्चर्य ! गाँधीजी जैसे विख्यात महात्मा का पत्र,विनोबाजी ने पढ़ा और बहुमूल्य धरोहर की भाँति सँभालकर रखने के बजाय फाड़ दिया ! विनोबाजी को ऐसा करते देख आश्रम के छात्रों को बड़ी हैरानी हुई । उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । उन्होंने प्रायः देखा था कि विनोबाजी आनेवाले पत्रों को फाइल में रखा करते थे । उनके कैश-बॉक्स में गाँधीजी के पुराने पत्र भी धन-सम्पत्ति की भाँति सुरक्षित थे ।

छात्रों को बड़ी जिज्ञासा हुई कि विनोबाजी ने पत्र क्यों फाड़ दिया ? वे सोच रहे थे कि कहीं गाँधीजी ने कोई डाँट-फटकार तो नहीं लगाई है ? किसी गलती की सजा हो या कटु टीका-टिप्पणी ? किसका भय था कि इन्होंने पत्र के टुकड़े-टुकड़े कर डाले ?
सैकड़ों शंकाएँ उनके मन में उभर रहीं थी । छात्रों ने डरते-सहमते धीमे स्वर में प्रश्न किया : “आपने गाँधीजी का कीमती पत्र रद्दी कागज की तरह टुकड़े-टुकड़े क्यों कर दिया ?”

कुछ सकुचाते हुए द्विधाभरी मन:स्तिथि में विनोबाजी ने कुछ कहना चाहा,किन्तु शब्द उनकी जबान पर आकर रुक गये ।
“इस पत्र में कुछ गलत बातें लिखीं थीं ।”
विनोबाजी के उत्तर को सुनकर छात्रों ने मन-ही-मन सोचा :’गाँधीजी तो सत्यवादी हैं । वे स्पष्ट शब्दों में सबके सामने जोर देकर कहते हैं कि हमारे वचन और कर्म सच्चे होने चाहिए।
कोई मनुष्य मुँह से बढ़-चढ़कर बातें करे और पेट में झूठ छुपाये रहे तो यह बनावट अधिक ठहर नहीं सकती । आवाज में,शब्दों के प्रयोग में ,चेहरे तथा शरीर की हिलचाल में सच और झूठ स्पष्ट दिखायी पड़ता है । झूठे आदमी की वाणी में हिचकिचाहट,चेहरे पर निस्तेजता होती है । वह आँखें मिलाते हुए झिझकता है । आशंका और गुप्त भय से उसका मन अस्थिर तथा चिन्तित रहता है । असत्य बात इतनी अस्वाभाविक होती है कि सुननेवाले के मन में अनायास ही अविश्वास के भाव जाग्रत हो उठते हैं । कई लोग बड़े कलात्मक ढंग से झूठ बोलते हैं । ऐसा तो नहीं कि गाँधीजी जैसे महात्मा पुरुष भी इस झूठ के शिकार हो गए हों।’

छात्रों ने अपना प्रश्न पुनः दोहराया : “लेकिन गुरूजी,
आप तो कहते थे कि गाँधीजी कभी झूठ नहीं बोलते ? फिर उन्होंने इस पत्र में झूठी बातें कैसे लिखीं ?”
विनोबाजी ने छात्रों को जो उत्तर दिया,वह स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है । उन शब्दों में जो शाश्वत सत्य झलकता है वह मार्गदर्शक ही नहीं,
धर्म का अभिन्न अंग भी है । 

वे बोले :”गाँधीजी झूठ नहीं बोलते,यह ध्रुव सत्य है,
लेकिन…..” वे कहते-कहते फिर रुक गये ।
“लेकिन क्या,गुरूजी ?”
“उस पत्र में उन्होंने मेरी प्रशंसा की थी और मुझे नीति,धर्म,आचरण और जीवन का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति लिखा था ।”
“फिर झूठ कैसे हुआ ?”

विनोबाजी ने कहा :”इस संसार में मुझसे भी अधिक सद्गुणी,संयमी,सत्यवादी,विद्वान और तपस्या करने वाले व्यक्ति मौजूद हैं । अतःगाँधीजी की यह बात सच नहीं हो सकती थी । शायद किसी दृष्टि से उनका यह मापदण्ड सच भी हो,तो भी यह पत्र मुझमें अहंकार पैदा करता । जितनी बार मैं इसे पढ़ता-देखता या 
सँभालता,मेरा अहंकार बढ़ता ही जाता । अहंकार उन्नति में बाधक है । यह मेरी भावी प्रगति में बाधक होता।
बस,इसीलिए अहंकार की जड़ को ही उखाड़कर फेंक दिया ।”

 – सीख – जो अपनी योग्यताओं में निखार चाहता हो,जीवन में सर्वांगीण उन्नति व सफलता की आकांक्षा रखता हो,उसे अहंकाररूपी दोष से सदा बचे ही रहना चाहिए । अनेक शास्त्रों में निरहंकारिता को मोक्ष का साधन कहा गया है ।

 ~लोक कल्याण सेतु/जन.-फर. २००३/अंक-६७