मुंबई स्टेशन पर रेलगाड़ी खड़ी थी । एक अनजान आदमी आया, उसने ट्रेन में एक बक्सा रखा और एक यात्री को कहा: “इसे जरा देखना, मैं आता हूँ ।” समय हुआ, गाड़ी चल पड़ी; कई स्टेशन निकल गये पर वे महाशय आये नहीं ।

आखिर मुंबई से निकली गाड़ी चेन्नई पहुँची यात्री उतर गये पर बक्सा पड़ा रहा । इस यात्री ने सोचा कि ‘वह तो आया नहीं । चलो, अपन ही बक्सा उठवा लो ।” यात्री ने कुली को कहा: “यह सामान भी ले चलो ।”

सामान के साथ थोड़ा बाहर आया तो लगेजवालों ने पकड़ा कि “एक टिकट पर इतना सारा वजन है ! किसका माल है ?”

इसने कहा : “हमारा है ।” 

और लगेज वालों ने 7 रुपये 6 आने की एक पर्ची फाड़ दी अतिरिक्त वजन के लिए ।

फिर बाहर निकला तो कस्टम वालों ने पूछा : “इतना माल किसका है ?”

यात्री ने कहा: “मेरा है ।”

“बक्से में क्या है ?”

“चाबी गुम हो गयी है । “

“चाबी गुम हो गयी तो क्या है ? खोलो इसे “

ताला तोड़ा तो अंदर से लाश निकली । अब वह कितना ही कहे कि ‘मेरा नहीं है, मेरा नहीं है…’ तो भी दफा ३०२ का मुकदमा बन गया । क्योंकि पहले उसने ‘मेरा’ कह दिया न ? 

ऐसे ही हम लोग दिन में न जाने कितनी बार ‘मेरा, मेरा, मेरा’ कहते हैं और हम लोगों के ऊपर भी ३०२ के न जाने कितने मुकदमे दर्ज हो जाते हैं ! उस यात्री पर ३०२ का केस बनता है तो उसको एक बार उम्रकैद की सजा मिलेगी लेकिन हमको तो ८४-८४ लाख जन्मों की सजा मिलती रहती है । उसने तो एक बक्से को ‘मेरा’ कहा किंतु हमने तो न जाने कितनों को ‘मेरा’ कहा होगा । यह मकान मेरा है… यह घर मेरा है… रुपये मेरे हैं… गहने मेरे हैं… गाड़ी मेरी है… ।

जितना अधिक ‘मेरा-मेरा’ कहते हैं उतने ज्यादा फँसते जाते हैं । मन में जितना जितना मेरेपने का भाव अधिक होता है, उतना उतना यह जीव जन्मों की परम्परा में जाता है और समय की धारा में सब ‘मेरा-तेरा… हैशो-हैशो’ करते प्रवाहित हो जाता है । जिसका सब कुछ है वह परमात्मा तेरा है, बाकी सब धोखा है ।

देह तो बनी है माया की मिट्टी से, मन बना है माया के सूक्ष्म तत्वों से, उस अनन्त की हवाएँ लेकर तू अपने फेफड़े चला रहा है, उस परमात्मा की सत्ता से सूर्य की किरणें तुझे जिला रही हैं । तेरा अपना क्या है? सच पूछो तो यह सब देनेवाले परमात्मा की अद्भुत करुणा से प्राप्त है ।

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर ।

जिसकी सत्ता से यह सब लीला हो रही है वह परमात्मा तेरा है । तू उसकी ठीक से स्मृति बना ले तो तेरी ज्ञानमयी दृष्टि जिनपर पड़ जायेगी उनका भी कल्याण होने लगेगा ।

– ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2006