Baccho ke liye Shikshaprad Kahani [Gyanvardhak Katha/ Kahani for Kids in Hindi] : गुरु सप्तमनाथजी नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य थे । वे केवल किताबी ज्ञान न प्रदान कर वास्तविक, अनुभवसिद्ध ज्ञान प्रदान करने में विश्वास करते थे । वे शिष्यों को ब्रह्म, जीव और जगत के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रहस्यों का ज्ञान देते थे । शिष्य भी अपने उन मित्र, मार्गदर्शक और माता-पिता की भूमिका निभानेवाले गुरु का सच्चे हृदय से सम्मान करते थे । उनकी शिष्यमंडली में समाज के सभी वर्गों के छात्र थे ।

एक बार गुरु सप्तमनाथजी शिष्यों के साथ वन में भ्रमण कर रहे थे । उनकी शिष्यमंडली में मगध का राजकुमार भी था । वह स्वभाव से जिज्ञासु, विनम्र और गुरु-आज्ञानुवर्ती था । चलते-चलते गुरुदेव एक स्थान पर ठिठककर खड़े हो गये । उनके हाथ से छड़ी गिर गयी । तुरंत ही राजकुमार ने छड़ी उठायी और गुरुदेव को पकड़ा दी किंतु बिना बादल बिजली गिरने की तरह गुरुदेव ने उसकी पीठ पर पूरे जोर से प्रहार कर दिया । सुकुमार राजकुमार चोट से तिलमिला उठा । पीठ पर चोट का निशान बन गया, रक्त भी छलछला गया । चौक के राजकुमार ने पूछा : “गुरुदेव ! ऐसा कौन-सा अक्षम्य अपराध मुझसे हो गया ?”

गुरुदेव ने कहा : समय पर इसका उत्तर तुम्हें स्वयं मिल जायेगा ।”

कुछ समय बाद गुरुकुल से लौटकर राजकुमार मगध का राजा बन गया । एक दिन राजसभा में किसी कार्यवश गुरु का आना हुआ । 

     राजकुमार ने गुरु का यथावत् स्वागत-पूजन करके उनके अभीष्ट कार्य को पूरा किया । वह अब भी उस दिन की घटना को पूरी तरह भूल नहीं पाया था । अतः उसने सविनय प्रश्न कर ही दिया : “गुरुदेव ! मन में घर कर गयी एक शंका का निवारण आपसे चाहता हूँ, मैं यह जानने का पात्र हूँ तो बताने की कृपा कीजियेगा । वनस्थली में परिभ्रमण करते हुए उस दिन अचानक मैं आपका कोपभाजन क्यों हो गया ?”

गुरुदेव :”वत्स ! उस दिन मैंने तुम्हें पीटा कहाँ था बल्कि एक कीमती पाठ पढ़ाया था । मैंने तुम्हारे और तुम्हारी प्रजा के भावी कल्याण के लिए ही वैसा किया था । मैं जानता था कि भविष्य में तुम्हें सम्राट बनना है, जिसमें सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में तुम्हें दंड-विधान भी करना होगा । किंतु द्वेषवश या प्रमाद से तुम कभी किसी निरपराध को दंड न दे बैठो इसलिए निरपराध को अकारण दंड देने से कितना कष्ट होता है इसका अनुभव मैंने तुम्हें कराया था । तुम पूर्णतया सोच विचारकर, मानवी संवेदना को ध्यान में रख के ही किसी व्यक्ति को दंड देना यही मेरा प्रयोजन था ।”

गुरु की दूरदर्शिता, मानवीय संवेदना, अपने व प्रजा के कल्याण का सद्-उद्देश्य एवं किसी भी निरपराध को अकारण दंड न देने के प्रति आत्यंतिक सजगता की आवश्यकता को समझकर राजा का हृदय गदगद हो गया तथा उसका सिर गुरु के चरणों में झुक गया ।

लोक कल्याण सेतु / अक्टूबर 2020 /अंक 280