महामना मदन मोहन मालवीय जी की बड़ी आकांक्षा थी कि काशी में हिन्दुओं का एक विश्वविद्यालय बने, जिसमें भारतीय संस्कृति के पवित्र, सर्वांगीण उन्नतिकारक वातावरण में छात्रों को शिक्षा मिले। वे इस उद्देश्य से ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ के निर्माण-कार्य में जुटे थे।

इस भगीरथ कार्य को सम्पन्न करने हेतु उन्हें प्रचुर धन की आवश्यकता थी। इसलिए वे समाज के धनसम्पन्न व्यक्तियों से मिलकर उनसे इस सत्कार्य में धन के सहयोग की प्रार्थना करते थे। उन्हें परोपकारी मानकर कई धनिक उन्हें सहयोग भी करते थे।

प्रस्तुत है इस संबंध में उनके कुछ अनुभवः
मालवीयजी के एक मित्र उन्हें धन के सहयोग की अपेक्षा से एक बड़े व्यापारी के घर ले गये। आवाज देने पर सेठजी ने बैठक का द्वार खोला और दोनों अतिथियों को आदर से बिठाया। उस वक्त शाम हो गयी थी और अँधेरा छाने लगा था। बैठक में बिजली नहीं थी, अतः सेठजी ने अपने छोटे पुत्र को लालटेन जलाने को कहा।

पुत्र लालटेन और दियासिलाई लेकर आया। उसने माचिस की एक तीली जलायी परंतु वह लालटेन तक आते-आते बुझ गयी। फिर दूसरी जलायी, वह भी बीच में ही बुझ गयी। जब तीसरी तीली का भी वही हाल हुआ, तब सेठजी लड़के पर नाराज होकर बोलेः “तुमने माचिस की तीन तीलियाँ नष्ट कर दीं। कितने लापरवाह हो !”

उन दिनों माचिस की एक डिब्बी दो पैसे में आती थी। लड़के को डाँटकर सेठजी भीतर गये, शायद अतिथियों से लिए पानी लेने। उनके अंदर जाने पर मालवीय जी ने अपने मित्र की ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा, मानो कह रहे हों कि ‘इस सेठ से कुछ पाने की आशा मत करो, क्योंकि वह तो इतना कंजूस है कि माचिस की तीन तीलियों के नष्ट हो जाने पर लड़के को डाँटता है।’ संकेत में ही मित्र ने मालवीय जी को सहमति जतायी और दोनों बैठक से बाहर निकले।

इतने में सेठ जी आ गये। वे चकित होकर बोलेः “अरे, आप चल क्यों दिये ? बैठिये, काम तो बताइये।” दोनों सज्जन पुनः बैठक में बैठ गये।
मालवीयजी के मित्र ने उन्हें हिन्दू विश्वविद्यालय के निर्माण और उसके उद्देश्य के बारे में बताया। सेठजी ने कहाः “यह काम तो बड़ा अच्छा है।” इतना कहकर सेठजी ने तुरंत पच्चीस हजार रूपये (जो आज के कई लाख रूपये से भी अधिक कीमत रखते थे) निकालकर रख दिये।

यह देखकर मालवीय जी और उनके मित्र चकित हो गये। मालवीय जी ने सेठ जी से कहाः “एक बात पूछूँ ? अभी आपने लड़के को माचिस की तीन तीलियाँ नष्ट कर देने की वजह से डाँटा था, जबकि तीलियों का मूल्य नहीं के बराबर है लेकिन हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए आपने तुरंत पच्चीस हजार रूपये दे दिये। इन दोनों व्यवहारों में इतना अंतर क्यों ?”

सेठजी हँसकर बोलेः “महामना ! मेरा सोचना ऐसा है कि व्यर्थ तो माचिस की एक तीली भी नहीं जानी चाहिए। लापरवाही से छोटी-से-छोटी वस्तु को भी नष्ट नहीं करना चाहिए लेकिन किसी शुभ कार्य में हजारों रूपये सहर्ष दे देने चाहिए। दोनों बातें अपनी जगह ठीक हैं। इनमें कोई विरोध नहीं।”

कितनी ऊँची समझ के धनी लोग थे भारत में ! आज भी ऐसे लोग इस भूमि पर हैं किंतु उनकी संख्या लगातार घटती जा रही है। ‘यूज़ एंड थ्रो’ अर्थात् किसी भी वस्तु का एक बार इस्तेमाल करो और उसमें एक खरोंच भी आ जाय तो उसे फेंक दो और नयी ले आओ-इस प्रकार की पश्चिमी देशों की बिगाड़ को बढ़ावा देने वाली विचार-प्रणाली अब भारत में भी अपने पैर जमा रही है।

हमें चाहिए की करकसर से जीवन जियें, वस्तुओं का पूर्ण उपयोग करें। उनका थोड़ा भी बिगाड़ न होने दें और अपने धन को सत्कार्यों में लगायें, भगवान के रास्ते जाने में और जाने वालों की सेवा में लगायें।

इस पंक्ति को सभी अपने जीवन में उतारें-
फिजूल में एक पैसा नहीं, सत्कार्य में लाखों सही। By Madan Mohan Malaviya