भर्तृहरि महाराज को जब परमात्मा का साक्षात्कार हुआ तो उन्होंने कलम उठायी और 100 श्लोकों वाला एक शतक लिखा-“वैराग्य शतक”। उसका अनुवाद किया पंडित हरदयाल जी ने।

पंडित हरदयाल संस्कृत शास्त्रों का इतना बढ़िया काव्यात्मक अनुवाद करते थे कि कविता में सारा अर्थ स्पष्ट हो जाता था।

एक पंजाबी साधु ने सोचा कि ‘जिसकी कविताएँ इतनी प्रभावशाली हैं वह आदमी स्वयं कैसा होगा ?’

पूछताछ की तो पता चला कि पंडित हरदयाल की किराने की दुकान है। पूछते-पूछते वह साधु पँहुचा पंडित हरदयाल की दुकान पर और वहाँ बैठे व्यक्ति से पूछे “पंडित हरदयाल आपका नाम है ?”

“हाँ।”

“हम आपकी कविता पढ़कर संत हो गये और आप अभी तक तराजू तौल रहे हो ! क्या रखा है इस तराजू में !”

पंडित हरदयाल उठ के चल पड़े। तराजू में बाट रखने तक को रूके नहीं। जूता चप्पल पहनने को भी नहीं रहे। चल पड़े तो चल पड़े और साधु हो गये। और लगे तो ऐसे लगे कि ‘स्व’-स्वभाव में जग गये। ज्ञान, शांति, आत्मसुख के धनी हो गये।

अमीरी की तो ऐसी की सब जर लुटा बैठे।
फकीरी की तो ऐसी की गुरु के दर पे आ बैठे।।

जो धर्माचरण करता है उसका हृदय शुद्ध हो जाता है। ऐसे शुद्ध हृदय व्यक्ति के चित्त पर संत-वचन का प्रभाव तत्काल पड़ता है, वह उसके हृदय में चोट कर जाता है और उसमें विवेक-वैराग्य का उदय हो जाता है।

संत तुलसीदास जी ने भी कहा हैः ‘धर्म ते बिरति…. ‘  ~’धर्म के आचरण में वैराग्य होता है।’

हमें चाहिए कि ईमानदारी से भगवत्प्रीत्यर्थ कर्तव्य कर्म करें और अपने हृदय को विशुद्ध बनायें, ताकि कोई संत-वचन या शास्त्र-वचन हृदय में चोट कर जाय और जीवन कृतार्थ हो जाये।

संत श्री आशारामजी बापू के सत्संग अमृत साहित्य से |