एक बार गुरु के दर पर आ गये तो फिर क्यों लौटना ? दृढ़ प्रीति का संदेश सुनाती हुई यह कहानी…..
एक युवराज घर छोड़कर भगवान के रास्ते गया और वृंदावन में जाकर रहने लगा । वहाँ उसने गुरु से दीक्षा ली और भजन करने लगा ।
राजा को जब इस बात का पता चला तो वह वृंदावन गया एवं गुरुजी के पास जाकर उसने कहा : “महाराज मेरा राजकुमार आपका शिष्य बना हुआ है, उसे समझा बुझाकर घर भेज दें । मैं आपके चरण पकड़ता हूँ ।”
लोगों को हुआ कि राजकुमार को वापस नहीं भेजेंगे तो राजा तो राजा होता है । वह अपने बल का भी उपयोग कर सकता है ।
राजकुमार उस वक्त आश्रम के कार्य से कहीं बाहर गया हुआ था। दूसरे गुरु भाई ने जाकर राजकुमार को बताया कि : “आपके पिताजी आपको लेने आये हैं एवं गुरुजी ने भी कहा है कि आप अपने पिता के साथ जायें, राजकाज संभालना एवं कभी-कभी इधर आते रहें ।”
राजकुमार बड़ा सयाना और चतुर था। उसने तवे की कालिख में तेल मिलाकर इसका काजल बना लिया और उस काजल से अपने मुँह को पोतकर काला कर दिया । फिर एक गधे पर बैठकर गुरुजी के पास पहुँचा ।
राजा देखकर चौंक उठा !!!
‘यह क्या राजकुमार गधे पर बैठकर आया है और उसने मुँह भी काला कर लिया है !’
राजा ने पूछा : “पुत्र! तुम्हारा मुँह किसने काला किया ?”
राजकुमार : “पिता जी किसी ने नहीं किया है। मैंने स्वयं ही अपने हाथों से मुँह काला कर लिया है । शास्त्रों में आता है कि जो ईश्वर के रास्ते, गुरु के रास्ते चले और फिर यदि उसे छोड़कर जाये तो उसे मुँह काला करके, गधे पर बैठकर अपने गाँव वापस जाना चाहिए इसलिए मैंने अपना मुँह काला कर लिया है और अब गधे पर बैठकर आपके साथ, आपके राज्य में चलूंगा ।”
पिता ने अपने ढंग से समझाया : “पहले अपना मुँह धो ले और घोड़े पर बैठकर राज्य में चल ।”
राजकुमार : “नहीं, यह शास्त्र का नियम है । जिसने एक बार गुरु और ईश्वर के रास्ते चलने के लिये कदम रख दिये तो उसे लौटना नहीं चाहिए । फिर भी वापस जाने की बात आये तो उसे काला मुँह करके गधे पर बैठकर जाना चाहिए ।”
राजा ने बहुत समझाया । गुरु ने भी कहा है : “बेटा शास्त्र की बात है तो सही लेकिन तेरे पिता तुझे लेने आये हैं । तू राजकुमार है अतः तू राजा बन सकता है ।”
राजकुमार : “राजा बनूंगा तो क्या हो जायेगा ? एक बार ईश्वर के मार्ग पर कदम रख दिये फिर वापस जाना….. यह तो नहीं हो सकेगा ।”
आखिर पिता तो पिता था, राजा भी था । समझदार तो था ही। उसे हुआ कि : “ईश्वर के मार्ग पर चलने वाले पुत्र पर मैंने जबरदस्ती की । फिर भी पुत्र बड़ा विवेकी है ।”
राजा : “अच्छा, बेटा तू वापस मत आ । यहीं रह । मैं ही कभी-कभी आ जाया करूंगा। कभी तेरी माँ आ जायेगी । तू केवल हमें मिलने का कष्ट करना ।”
राजकुमार : “पिताजी आप यह आग्रह भी क्यों रखते हैं? मिलना ही हो तो अपनी आत्मा से मिलें । इस शरीर से क्या मिलना यह तो दृश्य है जबकि द्रष्टा तो आपका और मेरा दोनों का एक ही है ।”
राजकुमार का भी तीव्र विवेक-वैराग्य जाग उठा था । पिता वापस लौट गये । साधना करते-करते वह राजकुमार मुक्तात्मा हो गया, ब्रह्मज्ञानी हो गया ।
कैसी दिव्य समझ थी राजकुमार की ! एक बार गुरु के दर पर आ गये तो फिर क्यों लौटना ? मानों, उसने दृढ निश्चय कर रखा था कि :
आये हैं तेरे दर पर, तो कुछ करके उठेंगे…
नहीं तो मरके उठेंगे ।
उसकी दृढ़ता ने काम किया और वह अपने जीवन-ध्येय को पाने में सफल भी हो गया । धन्य हैं वे सतशिष्य और वे साधक !
➢ ऋषि प्रसाद, फरवरी 2001