➠ संत ज्ञानेश्वर महाराज का जन्म भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि की मध्यरात्रि में हुआ था । यह परम पावन पर्वकाल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का था । एक बार संत ज्ञानेश्वरजी, निवृत्तिनाथजी, सोपानदेवजी व मुक्ताबाई – ये चारों भाई-बहन नेवासा (महाराष्ट्र) पहुँचे । वहाँ उन्हें एक महिला अपने पति के शव के पास रोती हुई दिखाई दी ।
➠ करुणावश संत ज्ञानेश्वरजी द्वारा मृतक का नाम पूछे जाने पर महिला ने बताया : ‘‘सच्चिदानंद”
➠ नाम सुनते ही ज्ञानेश्वरजी बोल उठे : ‘‘अरे ! सत्-चित्-आनंद की तो कभी मृत्यु हो ही नहीं सकती।” फिर उन्होंने मृतदेह पर अपना हाथ फेरा और चमत्कार हो गया….
➠ वह मरा हुआ व्यक्ति जीवित हो उठा । वह व्यक्ति नवजीवन देनेवाले, सच्चिदानंदस्वरूप में जगे उन महापुरुष के शरणागत हो गया । यही सच्चिदानंद आगे चलकर ज्ञानेश्वरजी के गीताभाष्य के लेखक ‘सच्चिदानंद बाबा बने । कुछ समय बीतने पर चारों संत नेवासा से आलंदी की यात्रा पर निकले । चलते-चलते वे पुणताम्बे गाँव में पहुँचे, जहाँ गोदावरी के तट पर कालवंचना करते हुए चांगदेवजी महासमाधि लगाकर बैठे थे । 1400 वर्ष की तपस्या के बल से वे महायोगी तो बन गये थे परंतु गुरुज्ञान न होने के कारण अहंकार जोर मारता था । चांगदेवजी समाधि लगाते तो उनके चारों ओर मृत देहें रखी जाती थीं और आसपास मृतकों के सगे-संबंधी बैठे रहते थे । चांगदेवजी समाधि से उठते तो पूछते : “यहाँ कोई है क्या ?” तब आसमान से प्रेत-आत्माएँ ‘हम यहाँ हैं’ कहकर अपने-अपने शरीर में पुनः प्रवेश कर जातीं और वे मृत शरीर पुनः जीवित हो उठते थे ।
➠ इन संतों को जब इस बात का पता चला तो ‘मृतदेहों के सगे-संबंधियों को चांगदेवजी की समाधि टूटने की राह देखकर परेशान क्यों होना पड़े ?’ – ऐसा सोचकर मुक्ताबाई ने कहा :- “इन सभी मृत देहों को एकत्र करो, मैं इन्हें जीवित कर देती हूँ ।” ऐसा ही किया गया ।
➠ संत ज्ञानेश्वर जी से संजीवनी मंत्र लेकर मुक्ताबाई ने पास में पड़ी कुत्ते की लाश को सभी मृत देहों के ऊपर घुमाकर दूर फेंक दिया । उसी क्षण वह कुत्ता जीवित होकर भाग गया तथा सभी मृतक भी एक साथ जीवित हो उठे । सभी लोग संतों की अनायास बरसी कृपा का गुणगान करने लगे ।
➠ वहाँ से विदाई लेकर चारों भाई- बहन आगे की यात्रा पर निकल पड़े । इधर चांगदेवजी ने समाधि से उठते ही वही प्रश्न पूछा पर कोई जवाब नहीं मिला । शिष्यों से सारा वृत्तांत सुनते ही चांगदेवजी को तुरंत विचार आया कि ‘पैठण में भैंसे से वेद मंत्र बुलवाने वाले महान योगी बालक कहीं यही तो नहीं हैं !’
अतः दर्शन की उत्सुकतावश अंतर्दृष्टि से उन्होंने बालकों को आलंदी के रास्ते जाते देखा । पर पहले पत्र द्वारा सूचित करना आवश्यक समझकर वे पत्र लिखने बैठे परंतु विचलित हो गये कि यदि उनके नाम के आगे ‘चिरंजीव’ लिखूँ, तो वे मुझसे ज्यादा सामर्थ्यवान हैं अतः उनका अपमान होगा । यदि ‘तीर्थरूप’ आदि श्रेष्ठतासूचक विशेषण लिखूँ तो मैं 1400 वर्ष का और मैं ही स्वयं को छोटा दिखाकर उन्हें सम्मान दूँ, इससे मेरी इतने वर्षों की तपश्चर्या निरर्थक हो जायेगी ।
उनके अहंकार ने जोर पकड़ा, अंततः उन्होंने कोरा कागज ही अपने शिष्य के हाथों भेज दिया ।
➠ कोरा पत्र देख मुक्ताबाई ने कहा :- “चांगदेवजी ने यह कोरा कागज हमें भेजा है ! 1400 वर्ष तपस्या करके भी चांगदेव कोरे-के-कोरे ही रह गये ! लगता है इन योगिराज ने जिस तरह काल को फँसाया है, उसी तरह अहंकार ने इन्हें फँसाया है ।”
➠ निवृत्तिनाथजी बोले :- “सद्गुरु नहीं मिले इसीलिए इन्हें आत्मज्ञान नहीं हुआ और अहंकार भी नहीं गया । ज्ञानदेव ! आप इन्हें ऐसा पत्र लिखें कि इनके अंतःकरण में आत्मज्योत जग जाए और ‘मैं’ व ‘तू’ का भेद दूर हो जाए ।”
➠ संत ज्ञानेश्वरजी ने वैसा ही पत्र लिखा किंतु जैसे जल के बिना दरिया और दरिया बिन मोती नहीं हो सकता, ऐसे ही गुरुदेव के मुख से निःसृत ज्ञानगंगा के बिना सच्चा बोध और अनुभवरूपी मोती भी प्रकट नहीं हो सकता । वही योगी चांगदेव के साथ हुआ । अहंकारवश वे सोचने लगे कि ज्ञानदेवजी को वे अपने योग के ऐश्वर्य से प्रभावित कर देंगे । उन्होंने एक शेर पर दृष्टि डाली और संकल्प किया तो वह पालतू कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते हुए उनके चरण सूँघने लगा । फिर चांगदेवजी ने एक भयंकर विषैले साँप पर अपने योगबल का प्रयोग किया और उसे चाबुक की तरह हाथ में धारण कर शेर पर सवार हो गये । अपने शिष्य-समुदाय को साथ लेकर वे ज्ञानेश्वरजी से मिलने आकाशमार्ग से निकल पड़े ।
➠ इधर चारों संत चबूतरे पर बैठे थे कि अचानक चांगदेवजी को इस प्रकार आते देख मुक्ताबाई ने कहा : ‘‘भैया ! इतने बड़े योगी हमसे इस तरह मिलने आ रहे हैं तो हमें भी उनसे मिलने क्या उसी प्रकार नहीं जाना चाहिए ?”
➠ ज्ञानेश्वरजी बोले : “ठीक है, तो हम इसी चबूतरे को ले चलते हैं ।”
और वे चबूतरे पर अपना हाथ घुमाते हुए बोले : “चल, हे अचल ! तू हमें ले चल । मैंने तुझे चैतन्यता दी है ।”
क्षणमात्र की देर किये बिना अचल चबूतरा चलने लगा ।
➠ जब चांगदेवजी ने देखा कि चारों संत सहज भाव से चबूतरे पर सवार होकर मेरी ओर आ रहे हैं और लेशमात्र अहंकार का किसी के चेहरे पर नहीं है तो उनका सारा अहंकार नष्ट हो गया ।
चांगदेव शेर से नीचे उतरे और दिव्यकांति ज्ञानदेवजी के चरणों से लिपट गये । चौदह सौ सालों से वहन किया गया भार उतारने से चांगदेवजी निर्भार हो गये ।
➠ सद्गुरु बिना की तपस्या से सिद्धियाँ तो मिल सकती हैं परंतु आत्मशांति, आत्मसंतुष्टि, आत्मज्ञान नहीं । ऐसी तपस्या से तो जीवत्व में उलझाने वाली सिद्धियों को पाने का अहंकार पुष्ट होता है और यह मनुष्य को वास्तविक शांति से दूर कर देता है । कितनी बार मौत को भी पीछे धकेलने वाले चांगदेवजी को 1400 साल की तपस्या करने के बाद यही अनुभव हुआ । यह अहंकार ब्रह्मज्ञानी संतों की शरण गये बिना, उनसे ब्रह्मज्ञान का सत्संग पाये बिना जाता नहीं है । आत्मा में जगे महापुरुषों की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार करने पर अहंकार का विसर्जन तथा परम विश्रांति, परम ज्ञान की प्राप्ति वे महापुरुष हँसते-खेलते करवा देते हैं, जिसके आगे 1400 वर्ष की तपस्या से प्राप्त सिद्धियाँ भी कोई महत्त्व नहीं रखतीं । ऐसे ब्रह्मज्ञानी संत ज्ञानेश्वरजी ने आलंदी में विक्रम संवत् 1353 में मार्गशीर्ष कृष्ण त्रयोदशी के दिन जीवित समाधि ली ।
सीख : गुरु बिन भवनिधि तरई न कोई, चाहे बिरंचि शंकर सम होई ।