एक बार महात्मा बुद्ध यात्रा करते हुए कौशाम्बी पहुँचे । वहाँ के कुछ लोग महात्मा बुद्ध से द्वेष रखने लगे थे और उनकी निन्दा किया करते थे । उन धूर्तजनों ने मिलकर महात्मा बुद्ध का विरोध करने के लिए एक मंडली बनायी और चहुँ ओर कुप्रचार करने लगे।
यह देखकर महात्मा बुद्ध के शिष्य आनन्द ने उनसे कहा :”भन्ते ! हमें अन्यत्र चलना चाहिए। यहाँ के लोग बड़े अभद्र हैं ।”
तथागत ने पूछा :”यदि वहाँ भी ऐसा भी दुर्व्यवहार हुआ तो ?”
“तब अन्यत्र चलेंगे ।”
“और वहाँ भी यही स्थिति रही तो ?”
“तब और कहीं चलेंगे ।”
बुद्ध बोले : “परिस्तिथियों से घबराकर भागना उचित नहीं । हम यहीं रुकेंगे। चल पड़ने पर लोग इन्हीं का कथन ठीक मानेंगे। इससे अधार्मिक निंदकों को बल मिलेगा और वे समाज को श्रद्धाहीन बनाकर पथभ्रष्ट करने में सफल होंगे ।”
नियत कार्यक्रम के अनुसार वहीं पड़ाव डाला गया और कुछ ही समय में आक्षेपकर्ताओं की हिम्मत टूट गयी ।
मानव जाति को जीवन का वास्तविक तत्व बताकर उसे सन्मार्ग पर ले चलने वाले संत जब-जब इस धरा पर आये हैं निंदक लोगों ने उनका विरोध किया ही है । फिर चाहे वे महात्मा बुद्ध हों अथवा महावीर स्वामी, गुरु नानकजी हों अथवा संत कबीरजी । श्रद्धालु,पुण्यात्माओं ने तो उनसे लाभ उठाकर अपना जीवन सँवार लिया लेकिन अश्रद्धालु, निंदक अभागे विरोध की ज्वाला में तपते रहे । स्वयं खूब कष्ट उठाकर जनसमाज की उन्नति के लिए प्रयासरत रहनेवाले महापुरुषों का विरोधियों ने लाख विरोध किया पर वे अपनी अहैतु की कृपा बरसाते ही रहे ।
विरोधों एवं निंदा से उन महापुरुषों को तो कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन निंदकों के प्रभाव में समाज का जो हिस्सा आया वह उन महापुरुषों से लाभ उठाने से वंचित रह गया । निंदकों ने समाज को हानि पहुँचायी। कान के कच्चे लोग श्रद्धा-विहीन होकर, फिसलू भइया, फिसलू समाज, फिसल-फिसल के अशांति के दलदल में जा गिरे । कबीरजी ने समाज को श्रद्धाविहीन करनेवाले लोगों के विषय में कहा :
कबिरा निंदक ना मिलो, पापी मिलो हजार ।
एक निंदक के माथे पर, लाख पापिन को भार ।।
पापी आदमी इतना संसार का अहित नहीं करता जितना एक निंदक करता है। तुलसीदास जी ने भी समाज को गुमराह करने वाले निंदकों से बचने के लिए कहा है :
हरि हर निंदा सुनइ जो काना।
होइ पाप गोघात समाना ।।
(श्रीरामचरित.लं.कां.:३१.१)
हरि गुरु निंदक दादुर होई ।
जन्म सहस्त्र पाव तन सोई ।।
(श्री रामचरित.उ.का. :१२०.१२)
नानकदेव ने भी ऐसे निंदकों को सावधान किया –
संत का निंदक महा हतिआरा।
संत का निंदक परमेसुरि मारा ।
संत के दोखी की पुरे न आसा।
संत कादोखी उठि चलै निरासा।।
(सुखमनी साहिब)
श्रद्धालुओं को ऐसे आसुरी तत्वों की प्रबलता को देखकर अपने कदम पीछे कदापि नहीं हटाने चाहिए बल्कि संगठित होकर दृढ़तापूर्वक सत्प्रचार में लगे रहना चाहिए ।
‘सत्यमेव जयते ।’ यह शाश्वत सिद्धांत है । प्रकाशमय दिवाकर के आगे अंधकार की कालिमा भला कब तक टिकी है ?
ॐ…ॐ..ॐ…
~ लोक कल्याण सेतु/ मई-जून २००८