सुभाषचन्द्र बोस का नाम स्वतंत्रता संग्राम के महारथियों की अग्रिम पंक्ति में आता है । उनका जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक प्रान्त में हुआ था । उनकी माता प्रभावती बड़ी ही धार्मिक प्रकृति की महिला थीं, जिनके संस्कारों का सुभाषचन्द्र पर गहरा असर पड़ा ।

बाल्यकाल से ही सुभाषचन्द्र बड़े निर्भीक, साहसी और उदार प्रकृति के थे । सत्संग व संत-समागम का एक भी अवसर वे अपने हाथ से छूटने नहीं देते थे ।
सन् 1915 में सुभाष ने कलकत्ता प्रेसीडेन्सी कॉलेज में बी.ए.की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रवेश लिया । वहाँ भारतीय विद्यार्थियों के प्रति अंग्रेज प्राध्यापकों का व्यवहार अच्छा न था ।

किसी भी छोटे से कारण पर वे छात्रों को बड़ी भद्दी-भद्दी गालियाँ सुना दिया करते थे । एक बार सुभाष की कक्षा के कुछ छात्र अध्ययन-कक्ष के बाहर बरामदे में खड़े थे । प्रोफेसर ई.एफ. ओटेन उधर से गुजरे और बरामदे में खड़े छात्रों पर बरस पड़े- ” जंगली, काले, बदतमीज इंडियंस….!!! “

अपनी मातृभूमि का घोर अपमान होता देख सुभाष का खून खौल उठा । वे अपने साथियों के साथ ओटेन की शिकायत लेकर प्रधानाचार्य के पास गये । प्रधानाचार्य भी अंग्रेज ही था, अतः उसने भी ओटेन का ही पक्ष लिया । दूसरा रास्ता न पाकर सुभाष अपनी कक्षा के विद्यार्थियों सहित हड़ताल पर उतर आये, जिसका बहुत ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा । अंततः प्रधानाचार्य और ओटेन, दोनों ने मजबूर होकर छात्रों से समझौता कर लिया ।

कुछ दिनों तक तो ओटेन शांत रहा परंतु एक दिन वह अपनी सीमा पार कर गया । ओटेन ने एक छात्र से प्रश्न पूछा पर छात्र उत्तर न दे सका । इस साधारण सी बात पर ओटेन ने उसे गालियाँ देना आरम्भ कर दिया :- ” यू ब्लैक मंकी… इडियट….!!! ” सुभाष को मर्मांतक पीड़ा हुई । एक भारतवासी की तुलना काले बंदर से………. !! इतना तिरस्कार ???

सुभाष उठ खड़े हुए और बोले :- ” प्रोफेसर  साहब ! आपको ऐसे असभ्य शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए । “
ओटेन और अधिक भड़क उठाः ” यू ब्लडी ! तुम बैठता है कि नहीं ??? “

ओटेन के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ते हुए सुभाष बोले :- ” तुम अपने को क्या समझते हो प्रोफेसर ?? तुम किस मुँह से गाली बकते हो ?? जबान खींच लूँगा….. । “

घटना की खबर शीघ्र ही चारों तरफ फैल गयी । पर यह तमाचा एक अंग्रेज अध्यापक को नहीं नहीं, बल्कि ब्रिटिश सरकार को भी दिया गया एक करारा तमाचा था कि भारतीयों के स्वाभिमान के साथ खेलने का क्या परिणाम होता है । 

अंग्रेज भारत छोड़कर चले गये और भारत स्वतंत्र हो गया परंतु भारतीय संस्कृति को तिरस्कृत व अपमानित करने के ऐसे घृणित कार्य अभी भी बंद नहीं हुए हैं । आज भी कई कॉन्वेंट स्कूलों में भारतीय संस्कृति को निम्न कोटि का दर्शाया जाता है । तिलक लगाना, राखी बाँधना तथा पायल पहनना आदि परम्परागत रीति-रिवाज, जो शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं, उन्हें अशिष्ट व अनावश्यक बताकर विद्यार्थियों को उन्हें जबरन छोड़ने के लिए कहा जाता है और न मानने पर तरह-तरह के दंड दिये जाते हैं । पैरों में पायल पहनना तो महिलाओं के गुप्त रोगों को दूर रखने हेतु ऋषि-परम्परा की देन है ।

सीख:- हमें भी अपने में सुभाषचन्द्र जैसा आत्मबल, देशभक्ति व निर्भयता लानी चाहिए, जिससे हम इन सांस्कृतिक आक्रमणों से अपनी संस्कृति को बचा सकें ।