भारत जब अंग्रेजों के अधीन था तो सत्ता के मद में अंग्रेज भारतियों से बड़ा ही घृणित व्यवहार करते थे, भारतवासियों को बहुत ही नीची दृष्टि से देखते थे ।
गुरुकुल कांगडी (हरिद्वार) के कुछ छात्र अपनी गर्मियों की छुट्टियाँ बिताने धर्मशाला (हि.प्र.) नामक नगर में गये हुए थे । वहाँ पर गोरे फौजियों की छावनी थी । एक दिन प्रातः जब छात्र घूमने जा रहे थे तो सामने से कुछ फौजी आते हुए दिखायी दिये । समीप आने पर छात्रों ने सड़क के एक ओर होकर उन्हें रास्ता दे दिया लेकिन एक सिपाही वह रास्ता छोड़कर एक छात्र की ओर मुड़ा और धीरे-धीरे घोड़ा इतने समीप ले आया कि उसका उस छात्र के शरीर से स्पर्श होने लगा ।
गोरे सिपाही ने सोचा था कि यह छात्र या तो झुककर सलाम करेगा या फिर डर के भागेगा पर दोनों ही बातें नहीं हुई। इसके विपरीत छात्र वहीं दृढ़ता से खड़ा रहा ।
तब सिपाही चिढ़कर बोला : ‘‘सलाम कर !”
छात्र (निर्भीकता से) : ‘‘क्यों करें सलाम ?”
सैनिक इस आत्माभिमान भरे उत्तर से उत्तेजित हो उठा और अंग्रेजी में बोला : ‘‘तुम्हें चाहिए कि हर अंग्रेज को सलाम किया करो । “
वह छात्र अपने स्थान पर निर्भीक व अचल खड़ा रहा और उसी स्थिर मुद्रा में उसने फिर कहा : ‘‘ऐसा कोई कानून नहीं है जो हमें जबरदस्ती सलाम करने को बाध्य करे । “
उस बालक की दृढ़ता, निर्भीकता को देखकर गोरे सिपाही के हौसले पस्त हो गये। अब उसके पास दो ही विकल्प थे -या तो वह उस निर्भीक छात्र पर अपना घोड़ा चढ़ा दे या फिर अपनी हार मानकर वापस चला जाए ।
मन-ही-मन वह क्रोध से जला जा रहा था । किंतु छात्र के अदम्य साहस, निर्भीक मुखाकृति तथा दृढ़ संकल्पशक्ति के सामने उसे लौटने का ही निश्चय करना पड़ा और यह कहते हुए कि ‘‘टुम सलाम नहीं करटा ? अच्छा, देखा जायेगा और वह चला गया । वही छात्र आगे चलकर एक बड़ा साहित्यकार तथा ईमानदार सफल पत्रकार आचार्य इन्द्र विद्यावाचस्पति के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
#सीख : जिसके जीवन में अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की बुलंदी है, वह भले प्रारम्भ में कष्ट का सामना करता दिखायी दे, पर अंत में जीत तो उस अदम्य आत्मविश्वास से भरे वीर की ही होती है । न्याय का साथ देनेवाले और अन्याय से मरते दम तक लोहा लेनेवाले ऐसे वीर ही खुद की तथा परिवार, समाज व देश की सच्ची सेवा करने में सफल हो पाते हैं ।
*प्रश्नोत्तरी : गोरे सिपाही के हौसले पस्त कैसे हो गए ?
~बाल संस्कार पाठ्यक्रम : अगस्त २०१८/प्रथम सप्ताह से