जब स्वामी रामतीर्थ (Swami Ramtirth) प्राध्यापक थे, वे छात्रों को बड़ी लगन और तन्मयता से पढ़ाते थे। छात्रों की जिज्ञासा बढ़ाने के लिए उनसे कई तरह के प्रश्न पूछा करते थे और उत्तर उनसे ही निकलवाते थे।

‘सफलता कैसे प्राप्त करनी चाहिए?’ – इस विषय पर एक दिन तीर्थरामजी ( स्वामी रामतीर्थजी (Swami Ramtirth) का पूर्व नाम ) को कक्षा में पाठ पढ़ाना था। उन्होंने विद्यार्थियों से कई तरह के प्रश्न पूछे तुरंत छात्रों से वैसा उत्तर नहीं मिला जैसा उन्हें अपेक्षित था। वे कुछ क्षण शांत हुए, फिर श्यामपट पर एक लम्बी लकीर खींची और बोले :”विद्यार्थियों ! आज आपकी बुद्धि की परीक्षा है। आपमें से कोई इस लकीर को बिना मिटाये छोटी कर सकता है ?”

सब छात्र असमसंज में पड़ गये। तभी एक छात्र ने पहली लकीर से बड़ी दूसरी लकीर खींच दी। इससे पहली लकीर छोटी नज़र आने लगी।

उस लकीर के पास बड़ी लकीर खींचनेवाले विद्यार्थी को शाबाशी देते हुए तीर्थरामजी बोले : “देखो विद्यार्थियों ! इसका एक गूढा़र्थ भी है। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो मनुष्य-जीवन भी सृष्टिकर्ता द्वारा खींची गयी एक लकीर है। अपने जीवनरूपी लकीर को बड़ी बनाने के लिए ईश्वर की खींची दूसरी लकीर को मिटाना अनुचित है।

 अपने को महान बनाने के लिए दूसरों को गिराने, मिटाने या परनिंदा करके दूसरों को नीचा दिखाने की बिल्कुल जरूरत नहीं है और यह उचित भी नहीं है। हमारी निपुणता तो इसमें है कि हम अपने जीवन में सद्गुणों के और विवेक की लकीर को बढ़ायें । हम किसी को पीछे धकेलने के चक्कर में न रहें बल्कि ईमानदारी, सच्चाई,पुरुषार्थ आदि दैवी गुणों का सहारा लेकर आगे बढ़ें। हमारी भारतीय संस्कृति का यह सिद्धांत है। सफलता प्राप्त करने का यही सच्च मार्ग है और दूसरे सब मार्ग भटकाने वाले हैं।”

भारतीय संस्कृति कहती है: ‘सर्वस्तर दुर्गाणि…’ अर्थात् एक-दूसरे को उन्नत करते हुए सभी संकीर्ण मान्यताओं रूपी दुर्ग को पार कर जायें। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में भगवान अर्जुन को बताते हैं कि सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना करने के बाद प्राणिमात्र को बड़ा हितकारी संदेश दिया है। 

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ । 

‘तुम लोग निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे को उन्नत करो। ऐसा करते हुए तुम परम कल्याण (ईश्वर-साक्षात्कार) को प्राप्त हो जाओगे ।’ (गीता ३.११)

पूज्य बापूजी कहते हैं~ ”अगर किसी का उत्कर्ष देखकर चित्त में ईर्ष्या होती है तो समझो अपना चित्त मलिन है। किसी को ऊँचे आसन बैठा देखकर उससे ईर्ष्या करने के बजाय तुम भी ऊँचे कर्म करो तो तुम भी ऊँचाई पर पहुँच जाओगे। ऊँचे आसन पर बैठने से आदमी ऊँचा नहीं हो जाता, नीचे आसन पर बैठने से आदमी नीचा नहीं हो जाता। नीची समझ है तो आदमी नीचा हो जाता है, ऊँची समझ है तो आदमी ऊँचा हो जाता है और सत्संग के श्रवण-मनन से प्राप्त होने वाली सर्वोच्च समझ है तो आदमी ऊँचे-में-ऊँचे परम पद, आत्मपद में भी प्रतिष्ठित हो जाता है,जहाँ बाह्य ऊँचा-नीचापन कोई महत्त्व नहीं रखता।”