एक व्यक्ति प्रायः साधु – संतों की खिल्ली उड़ाया करता था। वह एक बार अपने एक मित्र के कहने पर श्री देवराहा बाबा के दर्शन करने जा रहा था। एक परिचित ने पूछा : “कहाँ जा रहे हैं?” उसने कुत्सित तरीके से मुँह चढ़ाकर कहा : “ससुराल!”
साथी भक्त को दुःख हुआ। उसने कहा : “देखो मित्र ! संत का आश्रम भगवान का घर होता है। तुम्हारा ऐसा उत्तर कदापि उचित नहीं था। तुम इसके लिए क्षमा – याचना करो।”
परंतु उस व्यक्ति पर कोई प्रभाव न पड़ा। आश्रम पहुँचने पर वहाँ के आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से उस नास्तिक को कुछ सुकून का एहसास होने लगा। देवराहा बाबा आये, भक्तों को दर्शन देने लगे। एक सेवक को आदेश देते हुए उन्होंने कहा : “यह मेरा कुटुम्बी भक्त है, यह ससुराल आया है। धोती और कुछ रुपये लाओ। मैं इसकी विदाई करूँगा।”
“ससुराल” शब्द सुनते ही वह भौंचक्का रह गया। उसे अपनी बात याद आयी और वह बाबा से क्षमा माँगने लगा।
बाबा बोले : “देख बच्चा ! कभी किसी भी संत या उनके द्वार की निंदा मत किया कर। वे पृथ्वी के भूषण हैं,मानव – कल्याण हेतु वे जन – संपर्क में आकर अपनी तप – साधना का,ईश्वरीय आनंद का प्रसाद बाँटते हैं। जब जीवों पर करुणामय ईश्वर की विशेष कृपा होती है तो ऐसे संतों का सान्निध्य – लाभ होता है।”
जड़ जीवन को करै सचेता,
जग महै विचरत हैं एहि हेता।
उस व्यक्ति ने देवराहा बाबा से दीक्षा के लिए आर्त प्रार्थना की। बाबा ने उसे दीक्षा दी। वह बाबा की आज्ञानुसार अपने जीवन को ढालकर सत्पथ का पथिक बन गया।