( ब्रह्मलीन भगवत्पाद साईं श्री लीलाशाहजी महाराज प्राकट्य दिवस :- 28 मार्च )

एक इंजीनियर भक्त पूज्यपाद भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाहजी महाराज के सत्संग में रोज आता था । एक दिन उसने अपने मित्र से कहा :- ‘‘ भाई ! मैं स्वामीजी का सत्संग सुनने जाऊँगा, तुम भी मेरे साथ चलो ।

मित्र :- ‘‘ इस समय सत्संग सुनने की क्या आवश्यकता है ? जब रिटायर ( सेवानिवृत्त ) होंगे तब सत्संग सुनेंगे तथा प्रभु-भजन किया जायेगा ।

पर राजपाल के बहुत कहने पर वह भी सत्संग सुनने गया । सत्संग शुरू हुआ ।

स्वामीजी ने फरमाया :- ‘‘जवानी में अपना ध्यान ईश्वर की तरफ लगाना चाहिए । बचपन से अपने में ऐसे संस्कार डालने चाहिए । कई लोग कहते हैं कि हम रिटायर होकर फिर भजन-सत्संग करेंगे….

यह सुनकर राजपाल का मित्र आश्चर्यचकित हो गया । स्वामीजी ने फिर अमृतवचन कहे :- ‘‘अरे भाई ! तुम रिटायर होकर फिर भजन करोगे ? बुढ़ापे में खाँसते रहोगे… आँखों की रोशनी कम हो जायेगी… कान भी कम सुनने लगेंगे… चेहरे पर झुर्रियाँ आ जायेंगी… दूसरों पर निर्भर रहोगे । फिर क्या उस समय तुम्हें ईश्वर याद आयेंगे ?


पौत्र से कहोगे :- ‘‘ बेटे मोहन ! मेरी तो खाँसी कम नहीं हो रही है । तब पौत्र कहेगा :- ‘‘ दादा ! बुढ़ापे में ऐसा ही होता है । “
तब तुम कहोगे :- ‘‘ क्या कहा मोहन ? मैं तो पूरा सुनता भी नहीं हूँ । ” 
पौत्र कहेगा :- ‘‘ दादा ! आप तो बहरे हो गये हो ।”

इसलिए आवश्यक है कि सत्संग के संस्कार अपने में बचपन से ही डालने चाहिए, तब बुढ़ापे में सत्संग हो सकेगा तथा शारीरिक कष्ट कम परेशान करेंगे ।

बाल संस्कार पाठ्यक्रम (मार्च – 2019)