एक बार मदालसा के छोटे पुत्र ने अपनी माँ से प्रश्न कियाः-
“हे कल्याणमयी पुण्यशीला माता ! मेरे सभी बड़े भाइयों को आपने उपदेश देकर जंगल में घोर तपस्या करने एवं कठिन जीवन बिताने के लिए प्रेरित किया ? आप तो माँ हैं। उन्हें भजन ही करना था तो वे आराम से महल में रहकर भी तो भजन कर सकते थे। हमारे पास बहुत सा राज वैभव है। उन्हें अलग से महल दे देते, नियमित भोजन मिलता, छोटा सा बाग बगीचा होता, भजन करने के लिए सब सुविधाएँ हो सकती थीं। वे भी साधना करना चाहते थे और आप भी चाहती थीं कि वे साधना करें। फिर भी उन्होंने घर क्यों छोड़ा ?”
तब उस देवी ने कहाः “पुत्र ! अगर किसी नदी को पार करना हो तो नाव की जरूरत पड़ती है। मान लो, एक सजी-धजी नाव सब सुविधाओं से युक्त हो किन्तु उसमें छिद्र हो तथा दूसरी नाव देखने में एकदम साधारण हो, किन्तु छिद्र रहित हो तो यात्री किस नाव से नदी पर कर सकेगा ? सुविधायुक्त छिद्र वाली नाव से अथवा छिद्र रहित कम सुविधाओं वाली नाव से ?”
पुत्रः- “बेशक छिद्र रहित नाव से।”
मदालसाः- “ऐसे ही भोग विलास में रहकर सुख-सुविधाओं के बीच रहकर भजन करना, छिद्र वाली नाव में बैठकर यात्रा करने जैसा है…जबकि एकांत में, आश्रम में रहकर भजन करना – यह सुरक्षित नाव में बैठकर यात्रा करने जैसा है। इसीलिए मैंने उन्हें वन में भेजा।”
जो लोग सोचते हैं कि ʹअभी नहीं वरन् ʹरिटायरमेन्टʹ के बाद हम आराम से भजन करेंगे… बेटे-बेटी की शादी के बाद आराम से भजन करेंगे….ʹ उनकी यह आराम से भजन करने की बात आखिर तक बात ही रह जाती है, उनका आराम हराम हो जाता है। फिर वे निराश होकर मर जाते हैं। अतः अभी से भजन करना शुरु कर दो। आराम से भजन नहीं, वरन् प्रभु के लिए भजन करो। ईश्वर के लिए भजन करो। आज संसार के चिन्तन की जगह परमात्मचिंतन करो, उसी में मशगूल रहो और अपने अंतःकरण को उन्नत करो तो बाकी का काम तो आपके थोड़े से प्रयास से ही आराम से हो जायेगा और शाश्वत आराम आपको अपने ही रामस्वरूप में, आत्मस्वरूप में मिलेगा। भोग-विलास और प्रमाद आपको खोखला बना देगा, अतः अपने ब्रह्म-परमात्मा में आराम पाओ।
~ऋषि प्रसाद, फरवरी 2000