अवधूत जी (Avdhoot Ji)के विद्यार्थी काल की घटना (Satya Ghatna) है। उनका नाम पांडुरंग (Panduranga) था। इंटरमीडिएट की परीक्षा नजदीक थी। ज्योतिषी ने कहा :”इस बार तुम जरूर अनुत्तीर्ण होगे।” 

पांडुरंग (Panduranga) ने अपनी आत्मश्रद्धा के बल से कहा :”ज्योतिषीजी ! मैं तो अनुत्तीर्ण होनेवाला नहीं हूँ लेकिन चिढ़कर आप अपना पंचांग फाड़ देना।”

      इस बात को कुछ दिन हो गए अचानक पांडुरंग (Panduranga) बीमार पड़ गए, इसीलिए अत्याधिक दुर्बलता आ गई । डॉक्टर ने उन्हें कहा कि इस साल वे परीक्षा में शामिल ना हों तो अच्छा है । ज्योतिषी ने भी उन्हें खूब समझाया। घर के लोग भी समझाने लगे :”१ वर्ष बिगड़ेगा, इतना ही ना !”

इस प्रकार सभी तरफ से निराशा के स्वर सुनाई पड़े पर पांडुरंग (Panduranga) निराश नहीं हुए। उनके हृदय में अपने सद्गुरु श्री वासुदेवानंदजी के प्रति अप्रतिम श्रद्धा थी। उस श्रद्धा विश्वास ने उन्हें इस कठिन परिस्थिति से निपटने का बल एवं साहस प्रदान किया। उन्होंने डॉक्टर से कहा : “डॉक्टर साहब! मेरी मृत्यु यदि परीक्षा खंड में होनी निश्चित हुई होगी तो  कौन सी संसारी शक्ति उसे टाल सकेगी और क्या आप नहीं जानते हैं कि आपकी दवा लेने के बाद भी कई लोग मृत्यु को प्राप्त हुए हैं ? हां, मैं आपका इतना कहा मान सकता हूँ कि आपकी दवा साथ में ले जाऊँ और उसे सही समय पर लूँ, मगर परीक्षा में जरूर उपस्थित होऊँगा।”

ज्योतिषी को उन्होंने कहा : “स्वामीजी ! मैंने आज तक पढ़ाई की है खेलकूद में समय नहीं गँवाया है।अनुत्तीर्ण वह होता है जो आखिर तक बेभान होकर सोता रहता है। आग लगने पर कूपखनन सा मेरा काम नहीं है। अतः आपका देखा हुआ ज्योतिष फल निष्फल होगा, मैं नहीं ।”

ज्योतिषी बोला:”ऐ लड़के ! अभिमान मत कर । अभिमान किसी का टिका नहीं है।”
पांडुरंग (Panduranga) ने कहा :”मैं अभिमान नहीं करता हूँ यह तो गुरु महाराज की कृपा से उत्पन्न हुआ आत्मविश्वास है।”

उन्होंने परीक्षा दी और द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए। इस प्रकार अवधूतजी (Avdhoot Ji) में बचपन से ही श्रद्धा-विश्वास के सहित पुरुषार्थ का भी संपुट था। भाग्य के भरोसे रहकर पुरुषार्थ न करने की कायरता उनके जीवन में नहीं थी। यही कारण था कि उन्हें अलौकिक आध्यात्मिक दोनों चित्र में सफलता प्राप्त हुई।

लोक कल्याण सेतु /अक्टू.-नव.06