A Moral Story – Who is great : “Luck or Effort” ?

एक संत ने सत्संग में कहा : ‘‘मनुष्य का उत्थान पुरुषार्थ तथा पराक्रम से सिद्ध होता है ।”

केवल दैव (प्रारब्ध) को माननेवाला एक कुम्हार युवक इस पर असहमत होकर बोला : ‘‘जो होनहार है वह होता ही है, उस पर पुरुषार्थ का कोई असर नहीं पड़ता।

संत ने पूछा : ‘‘तुम कौन हो ?”

युवक : ‘‘कुम्हार ।”

संत : ‘‘मिट्टी के बर्तन किस तरह बने हैं ?”

कुम्हार युवक ने पूरी विधि बता दी ।

संत : ‘‘वे बर्तन पुरुषार्थ से ही बने हैं न ?”

युवक फिर भी न माना ।

संत : ‘‘यदि कोई तुम्हारे सभी बर्तनों को लकड़ी से तोड़ दे तो तुम क्या करोगे ?”

‘‘मैं उसकी पिटाई करूँगा ।”

‘‘क्यों ? क्या यह होनहार नहीं है ?”

युवक सोच में पड़ गया ।

संत ने पुनः कहा : ‘‘हे युवक ! सोचो, कोई दुष्ट तुम्हारे निर्दोष भाई को मारे-पीटे तो तुम क्या करोगे ?”

‘‘मैं ऐसे दुष्ट को कठोर दंड दिलाऊँगा ।”

‘‘क्या इसे होनहार न मानोगे ?”

‘‘तो महाराज जी ! दैव संज्ञा की कोई उपयोगिता नहीं ?”

‘‘अपना पूर्ण प्रयत्न करने के बावजूद भी तरतीव्र प्रारब्ध वश या वैसी किसी कारण से सफलता न मिले तो मन को हताश-निराश नहीं करना चाहिए । ऐसे समय ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा’ इस प्रकार ईश्वरेच्छा के रूप में दैव का स्मरण कर निश्चिंत होने के लिए दैव की उपयोगिता है । पुरुषार्थ का त्याग करके ‘हाय दैव ! हाय भाग्य !!’ करके बीते हुए का शोक, भविष्य का भय करते हुए अनमोल वर्तमान समय को कायर, नपुंसक बनकर बरबाद करने के लिए दैव का प्रयोजन कदापि नहीं है ।

अब कुम्हार युवक के रोम-रोम से पुरुषार्थ करने की उमंग चेतना फूट निकली एवं दैव के सदुपयोग की भी कुंजी पाकर वह धन्य हो गया ! युवक ने संत से वास्तविक पुरुषार्थ का मार्ग जाना तथा उनकी शरण लेकर सच्चे पुरुषार्थ अर्थात् आत्मपद की प्राप्ति में लग गया ।