काशी के एक बड़े विद्वान, जो तर्कशास्त्री तथा शास्त्रार्थ- महारथी थे, वे विभिन्न स्थानों पर अपनी विजय-पताका फहराते हुए महाराष्ट्र पहुंचे और उन्होंने स्वामी रामदासजी को शास्त्रार्थ की समर्थ चुनौती भिजवायी ।

समाचार पाते ही स्वामीजी ने अपने शिष्यों से कहा : “तुम लोग जाओ और काशी के उन विद्वान की समारोहपूर्वक शोभायात्रा निकालकर उन्हें ससम्मान यहाँ ले आओ ।”

शिष्य पंडितजी को उसी प्रकार आश्रम लाये । पंडितजी ने समर्थजी से कहा : “मैं आपकी ख्याति सुनकर शास्त्रार्थ के उद्देश्य से यहाँ तक आया हूँ । यदि सम्भव हो तो कल मेरे साथ शास्त्रार्थ कर अपनी सिद्धि और योग्यता का परिचय दीजिये ।”

समर्थ रामदासजी मुस्कराते हुए बोले : “पंडितप्रवर ! विद्या तो ऐसा प्रकाश है जो बाहर भीतर सब कुछ प्रकाशित कर देता है । उस दिव्य प्रकाश को पाकर भी आप अब तक अज्ञानांधकार में भटक रहे हैं यह आश्चर्य की ही बात है ।”

पंडितजी क्रोध से भरकर बोले : “तुम्हारा यह साहस कि मुझे अज्ञानांधकार में भटकता हुआ बताओ ! जानते हो, तुम यह किससे कह रहे हो ?”

स्वामीजी ने शांत भाव से कहा : “जैसी आपकी इच्छा । आपके अन्य सभी प्रश्नों के साथ इस प्रश्न का उत्तर भी कल आपको मिल जायेगा । अभी आप विश्राम करें ।”

दूसरे दिन शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया । गाँव के लोगों का भारी समुदाय इकट्ठा हो गया । 

पंडितजी ने अब शास्त्रार्थ आरम्भ करने की आज्ञा माँगी । स्वामीजी ने उनसे कुछ पल रुकने के लिए कहा और दर्शकों में से एक सामान्य से व्यक्ति को निकट बुलाकर बिठाया और कहा : “बेटा ! पंडितजी जो प्रश्न करें उसे ध्यान से सुनना और उसका शास्त्रसम्मत उत्तर देना ।”

उस व्यक्ति ने अचकचाते हुए कहा : “स्वामीजी ! पढ़ना तो दूर, मैंने शास्त्रों को देखा तक नहीं है ! मैं प्रश्नों को समझूंगा कैसे और उनका शास्त्रसम्मत उत्तर कैसे दे पाऊँगा ?”

समर्थ : “बेटा ! घबराओ नहीं, जैसा कहा है वैसा करो ।”

फिर पंडितजी को बोले : “पंडितजी ! मेरा प्रतिनिधि यही व्यक्ति है । यदि आपके किसी प्रश्न का शास्त्रसम्मत उत्तर यह न दे पाया तो मैं अपनी पराजय स्वीकार कर लूंगा ।”

स्वामीजी का कथन सुनकर पंडितजी अपनी विजय को अवश्यम्भावी मानकर पुलक उठे । पर कुछ प्रश्न करने और उनका उत्तर पाने के बाद पंडित का भ्रम दूर होने लगा ।

अचानक उन्होंने स्वामीजी के प्रतिनिधि को बौखलाने के विचार से उस पर प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर वह ग्रामीण शास्त्रीय प्रमाणों, उदाहरणों की सहायता से उनके प्रश्नों का समुचित उत्तर देता रहा । यह देख के पंडितजी समझ गये कि समर्थ रामदासजी कोई पहुँचे हुए सिद्धपुरुष हैं ।

वे स्वामीजी के चरणों में गिर पड़े और अपने अज्ञानजनित अपराध के लिए बार-बार क्षमाप्रार्थना करते हुए उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार की ।

स्वामीजी ने उन्हें समझाते हुए कहा : “तुम्हारी क्षमाप्रार्थना से पूर्व ही मैं तुम्हें क्षमा कर चुका हूँ । प्रभुकृपा से आज तुम्हारा गर्व गल गया और तुम सही अर्थों में विद्वान कहलाने के पात्र बन गये । जाओ, अब अपनी विद्वत्ता, विदग्धता (चातुर्य, कौशल) व वाणी का उपयोग अच्छे कार्यों में करो ।”

➢ लोक कल्याण सेतु, अक्टूबर 2017