सिंधी जगत के महान तपोनिष्ठ ब्रह्मज्ञानी संत श्री टेऊँराम जी ने जब अपने चारों ओर समाज में व्याप्त भ्रष्टाचारों को हटाने का प्रयत्न किया, तब अनेकानेक लोग आत्म कल्याण के लिए सेवा में आने लगे । जो अब तक समाज के भोलेपन और अज्ञान का अनुचित लाभ उठा रहे थे, समाज का शोषण कर रहे थे, ऐसे असामाजिक तत्त्वों को तो यह बात पसन्द ही न आई। कुछ लोग डोरा, धागा, तावीज का धन्धा करनेवाले थे तो कुछ शराब, अंडा, माँस, मछली आदि खाने वाले थे तथा कुछ लोग ईश्वर पर विश्वास न करनेवाले एवं संतों की विलक्षण कृपा, करुणा व सामाजिक उत्थान के उनके दैवी कार्यों को न समझकर समाज में अपने को मान की जगह पर प्रतिष्ठित करने की इच्छा वाले क्षुद्र लोग थे। वे संत की प्रसिद्धि और तेजस्विता नहीं सह सके । वे लोग विचित्र षड़यंत्र बनाने एवं येन केन प्रकारेण लोगों की आस्था संत जी पर से हटे। ऐसे नुस्खे आजमाकर संत टेऊँरामजी के ऊपर कीचड़ उछालने लगे । उनको सताने में उन दष्ट हतभागी पामरों ने जरा भी करकसर न छोड़ी। उनके आश्रम के पास मरे हुए कुत्ते, बिल्ली और नगर पालिका की गन्दगी फेंकी जाती थी । संत श्री एवं उनके समर्पित व भाग्यवान शिष्य चुपचाप सहन करते रहे और अन्धकार में टकराते हुए मनुष्यों को प्रकाश देने की आत्मप्रवृत्ति उन्होंने न छोड़ी ।
हमें रोक सके ये जमाने में दम नहीं..
कुप्रचार ने इतना जोर पकड़ा, इतना जोर पकड़ा कि कुछ भोले-भाले सज्जन लोगों ने साँई राम के पास जाना बंद कर दिया। उस वक्त के सज्जनों की यह बड़ी भारी गलती रही कि उन्होंने सोचा, ‘अपना क्या, जो करेगा सो भरेगा।’ अरे! कुप्रचार करनेवाले क्यों कुप्रचार करते ही रहें ? वे बेचारे करें और फिर भरें, उससे पहले ही तुम उन्हें आँखें दिखा दो ताकि वे दुष्कर्म करें भी नहीं और भरें भी नहीं, समाज की बरबादी न हो, समाज गुमराह न हो।
खैर… साँई टेऊँराम की निंदा एवं कुप्रचार ने आखिरकार इतना जोर पकड़ा कि नगरपालिका में एक प्रस्ताव पास किया गया कि ‘साँई टेऊँराम के आश्रम में जो जायेंगे उनके माता-पिता को पाँच रुपये जुर्माना भरना पड़ेगा।’ उस वक्त पाँच रुपये की कीमत बहुत थी। करीब ६० रुपये तोला सोने की कीमत थी तब की यह बात है। कुछ कमजोर मन के लोगों ने अपने बेटे-बेटियों को साँई टेऊँराम के आश्रम में जाने से रोका । कुछ तो रुक गये लेकिन जिनको महापुरुष की कृपा का महत्त्व ठीक-से समझ में आ गया था वे नहीं रुके। उनकी अंतरात्मा तो मानो कहती हो कि :
‘हमें रोक सके ये जमाने में दम नहीं।
हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं ।’
बीड़ी-सिगरेटवाला बीड़ी-सिगरेट नहीं छोड़ता, शराबी शराब नहीं छोड़ता, जुआरी जुआ खेलना नहीं छोड़ता तो वे सत्संगी, समझदार लोग गुरु के द्वार पर जाना कैसे छोड़ देते ? पास करनेवालों ने तो पाँच रुपये का जुर्माना पास कर दिया किंतु सच्चे भक्तों ने साईं टेऊँराम के आश्रम में जाना नहीं छोड़ा।
जब कुप्रचारकों ने कुप्रचार के साथ-साथ दंड का प्रस्ताव पास करवाया तब क्या हुआ..?
हमारी जिनके प्रति श्रद्धा होती है उनके लिए हमारे चित्त में सुख देने की भावना होती है वह फिर राम भक्त शबरी हो या कृष्ण भक्त मीरा, उनके हृदय में अपने आराध्य को सुख देने की ही भावना थी। साँई टेऊँराम के शिष्य भी अपने गुरु की प्रसन्नता के लिए प्रयत्नशील रहते थे। गुरु के प्रति अपने अहोभाव को प्रदर्शित करने के लिए अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार पत्र-पुष्प आदि अर्पित करते थे। इसे देखकर निंदकों के हृदय में बड़ी ईर्ष्या उत्पन्न होती थी। अतः उन्होंने कुप्रचार करने के साथ-साथ पाँच रुपये दंड का प्रस्ताव भी पास करवा लिया था। कुछ ढीले-ढाले लोग जो आते थे, बाकी के साँई टेऊँराम के प्यारों ने आश्रम जाना जारी ही रखा। ईश्वर के पथ के पथिक इसी प्रकार वीर होते हैं। उनके जीवन में चाहें हज़ार विघ्न-बाधाएँ आ जायें किंतु वे अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होते। अनेक अफवाहें एवं निंदाजनक बातें सुनकर भी उनका हृदय गुरुभक्ति से विचलित नहीं होता क्योंकि वे गुरुकृपा के महत्त्व को ठीक से समझते हैं। गुरु के महत्त्व को जानते हैं।
और भी जोरों से चली कुप्रचार की आँधी..!
फिर भी भक्तों की में कमी न आई..!!
……..तो वे साँई टेऊँराम के प्यारे कैसे भी करके पहुँच जाते थे अपने गुरु के द्वार पर । माता-पिता को कहीं बाहर जाना होता तब लड़के कहीं भागकर आश्रम न चले जायें यह सोचकर माता-पिता अपने बेटों को खटिया के पाये से बाँध देते और उन्हें बरामदे में रखकर बाहर से ताला लगाकर चले जाते । फिर सत्संग के प्रेमी लड़के क्या करते…
खटिया को हिला-डुलाकर तोड़ देते एवं जिस पाये से उनका हाथ बँधा होता उस पाये के साथ ही साँई टेऊँराम के आश्रम पहुँच जाते । साँई टेऊँराम एवं अन्य साधक उनके बंधनों को खोल देते। लोगों ने देखा कि ये लोग तो खटिया के पाये समेत आश्रम पहुँच जाते हैं ! अब क्या करें?
साँई टेऊँराम अपने आश्रम में ही अनाज उगाते थे। जब कुप्रचारकों ने देखा कि हमारा यह दाँव भी विफल जा रहा है तो उन्होंने एक नया फरमान जारी करवा दिया कि कोई भी दुकानदार साँई टेऊँराम के आश्रम की कोई भी वस्तु न खरीदे, अन्यथा उस पर जुर्माना किया जायेगा। इतने से भी साँई टेऊँराम की समता, सहनशीलता में कोई फर्क नहीं आया एवं उनके साधकों की श्रद्धा यथावत् देखी तो उन नराधमों ने, आश्रम जिस कुएँ के जल का उपयोग करता उसमें केरोसिन (मिट्टी का तेल) डाल दिया। क्या नीचता की पराकाष्ठा है! कितना घोर अत्याचार ! लेकिन साँई टेऊँराम भी पक्के थे।
संत-महापुरुष कच्ची मिट्टी के थोड़े ही होते भगवान की छाती पर खेलने की उनकी ताकत है | कई बार भगवान अपने प्रण को त्यागकर भक्तों की, संतों की बात रख लेते हैं, जैसे – पितामह के संकल्प को पूरा करने के लिए भगवान ने अपने हथियार न उठाने के प्रण को छोड़ दिया था।
साई टेऊँराम के प्रचार से एक ओर जहाँ कमजोर मनवालों की श्रद्धा डगमगाती, वहीं उनके प्यारों का प्रेम उनके प्रति दिन-ब-दिन बढ़ता जाता। साँई टेऊँराम अपने आश्रम में एक चबूतरे पर बैठकर सत्संग करते थे। उनके पास अन्य साधु-संत भी आते थे। अतः वह चबूतरा छोटा पड़ता था। यह देखकर उनके भक्तों ने उस चबूतरे को बड़ा बनवा दिया। बड़े चबूतरे को देखकर उनके विरोधी ईर्ष्या से जल उठे एवं वहाँ के तहसीलदार को बुला लाये। उसने आकर कहा कि यह चबूतरा अनधिकृत रूप से बनाया गया है जिसके कारण सड़क छोटी हो गयी है एवं लोगों को आने-जाने में परेशानी होती है। अतः इस चबूतरे को तोड़ देना चाहिए। यह कहकर उसने साँई टेऊँराम के विरुद्ध मामला दर्ज कर दिया एवं उन्हें अदालत में उपस्थित होने को कहा किंतु निश्चित समय पर साँई टेऊँराम अदालत में उपस्थित न हुए।
दूसरे दिन जब वे स्नान करके तालाब से लौटे तो देखा कि चबूतरा टूटा हुआ है संत तो सहन कर लेते हैं किंतु प्रकृति से उनका विरोध सहा नहीं जाता। कुछ समय के पश्चात् उस तहसीलदार का तबादला दूसरी जगह हो गया। उसकी जगह दूसरा तहसीलदार आया जो बड़ा श्रद्धालु और भक्त था। अतः उसने पुनः वह चबूतरा बनवा दिया। जिन्होंने साँई टेऊँराम को अपमानित करने की कोशिश की, लज्जित और बदनाम करने की कोशिश की, उनकी तो कोई दाल नहीं गली। जिन्होंने साँई टेऊँराम को निंदित करने का प्रयास किया, उनका कुप्रचार करके उनकी कीर्ति को कलंकित करने का प्रयास किया उनमें से कुछ लोगों ने पश्चात्ताप करके माफी ले ली और बाकी के नीच कृत्य करनेवाले न जाने कौन-से नरक में होंगे। लेकिन साँई टेऊँराम के पावन यश का सौरभ आज भी चतुर्दिक प्रसारित होकर अनेक दिलों को पावन कर रहा है।
📚 ऋषि प्रसाद /सितम्बर २००८