पटना (बिहार) में एक संयमी, सदाचारी सज्जन रहते थे – बाबू रामदास । वे सरकारी नौकरी में ऊँचे पद पर थे । उनका पाँच वर्ष का पुत्र था कालिदास । रामदासजी अपने पुत्र में अच्छे संस्कारों के सिंचन के प्रति बहुत सजग रहते थे । वे रूपये-पैसे से भी अधिक सद्गुण-सम्पदा को महत्वपूर्ण मानते थे । कालिदास को परिवार के बड़े-बुजुर्गों द्वारा महापुरुषों के संयम, सदाचार, सत्यनिष्ठा जैसे सदगुणों को सुदृढ़ करनेवाली कहानियाँ बतायी जाती थीं ।

रामदासजी ने कालिदास को चॉकलेट्स आदि की लोलुपता में फँसने नहीं दिया था बल्कि अच्छी-अच्छी पुस्तकें, सत्साहित्य पढ़ने का चस्का लगा दिया था । कालिदास ने जब सच्चाई की महिमा पढ़ी-सुनी तो उसे यह सद्गुण बहुत भा गया । एक संत के उपदेशों में उसने पढ़ा : ” सच्चाई ही खरी कमाई है । जिसे जीवन के सार सत्य के रहस्य को जानना हो,उसे यही कमाई करनी चाहिए ।”

बस, अब तो उसने संकल्प ले लिया कि “आज से मैं हमेशा सत्य बोलूँगा व सच्चाई से ही जिऊँगा ।”

बाबू रामदासजी ने अपने घर के बाहर बड़ी सुंदर फुलवारी लगायी हुई थी । उनके बनाये नियम के अनुसार वहाँ के फूलों को तोड़ना सभी के लिए सर्वथा निषिद्ध था । एक दिन घर की नौकरानी कालिदास को टहलाने वहाँ ले गयी । सुन्दर फुलवारी को देखकर बालक फूल तोड़ने की जिद करने लगा । नौकरानी के मना करने पर भी उसने फुलवारी के सारे गुलाब के फूल तोड़ लिये । घर आकर उन फूलों को एक कोने में रखकर वह कमरे में चला गया ।

कुछ देर बाद जब रामदासजी बाहर आये तो जमीन पर फूलों का ढेर देखकर नौकरानी को खूब डाँटने लगे । वह बेचारी चुपचाप खड़ी थी। आवाज सुन बालक बाहर आया और निर्दोष को डाँट मिलते देख बोल पड़ा : “पिताजी ! फूल इन्होंने नहीं, मैंने तोड़े थे । इन्होंने तो मुझे बहुत मना किया पर मैं तोड़े जा रहा था । गलती मेरी है ।”

अपने नन्हे पुत्र का सत्य बोलने का साहस देख रामदासजी बहुत प्रसन्न हुए । उस पाँच वर्ष के बालक की यह पहली खरी कमाई थी । उसे गोद में उठाकर बोले : “शाबाश बेटे ! तुमने मार पड़ने के महत्व न देकर सत्य बोलने का साहस किया है । तुम्हारी सच्चाई के आगे इन फूलों का कोई मूल्य नहीं है । तुम हमेशा ऐसे ही सच बोलते रहना । सत्य में बड़ा बल है। परमात्मा सच बोलनेवाले की कदम-कदम पर सहायता करते हैं ।” वे कुछ देर शांत हो गए फिर आशीर्वाद देते हुए बोले : “बेटे ! तुम्हारी सत्यनिष्ठा से मुझे बहुत प्रसन्नता व शांति मिली है । इसलिए आज से मैं तुम्हें ‘सत्यव्रत’ नाम से पुकारूँगा ।”

कितने बुद्धिमान एवम् कुशल अभिभावक थे रामदासजी ! जितनी उन्हें बाहरी फूलों के बगीचे सींचने-महकाने में ख़ुशी होती थी,उससे भी अधिक उन्हें बालकों में सद्गुण-सुसंस्काररूपी भीतरी फूलों को खिलाने व पोषित करने में प्रसन्नता का अनुभव होता था ।

रामदासजी की पुष्प-वाटिका की छोटी-सी सुंदर कली ‘सत्यव्रत’समय पाकर विश्व-उपवन को भारतीय संस्कृति की महक से महकाने वाले एक सुविकसित पुष्प में परिणत हुई ।

सत्यव्रत की सत्यनिष्ठा के प्रभाव से वेदों और शास्त्रों के गूढ़,रहस्यमय अर्थ भी उसके हृदय में प्रकट होने लगे । एक समय का नन्हा-सा बालक कालिदास आगे चलकर वेद-वेदांगों के महान विद्वान् पंडित सत्यव्रत सामश्रमी के नाम से विख्यात हुआ और हिन्दू धर्म के छः वेदांगों में से एक ‘निरुक्त’ जैसे महान ग्रन्थ पर उन्होंने टीका लिखी ।

ऐसे सत्यनिष्ठ दृढ़व्रती बालक को यदि किन्हीं आत्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य मिल जाता तो वह ब्रह्मवेत्ता महापुरुष भी हो सकता था ।

– आपके बेटे-बेटियों में भी कोई-न-कोई सद्गुण जरूर होंगे । क्या आप भी रामदासजी की तरह बच्चों को उत्साहित करके उन सदगुणों को पोषित-संवर्धित करेंगे ? इससे न केवल आपका परिवार-पड़ोस सुसंस्कारी बनेगा अपितु देश को भी अच्छे नागरिक प्रदान करने की महती सेवा आपके द्वारा हो जायेगी ।

➢ ऋषि प्रसाद, अगस्त 2013