” संयम, व्रत, नियम आदि हमारे जीवन को उन्नत बनाने में बड़े सहायक सिद्ध होते हैं …..
मन को वश करने तथा दोषों, कुसंस्कारों से छुटकारा पाने में नियम-निष्ठा से बहुत सहायता मिलती है ।
भले ही छोटा-सा नियम हो ,पर अगर उसका दृढ़तापूर्वक पालन किया जाये तो संकल्प शक्ति बढ़ती है….
आत्मविश्वास जगता है और व्यक्ति सफलता की ओर अग्रसर होता है । “
-पूज्य संत श्री आशारामजी बापूजी
गाँधीजी (Mahatma Gandhiji) दक्षिण अफ्रीका में थे । एक दिन वहाँ उनके आश्रम में भोजन में कढ़ी-खिचड़ी भी बनी । साधारणतया आश्रम में कढ़ी बनने का मौका कभी-कभी ही आता था ।
जिन विद्यार्थियों ने नमक न खाने का नियम लिया था, वे कढ़ी-खिचड़ी नहीं ले सकते थे । किसको क्या और कितना खाने को देना है, गाँधीजी इसका भी पूरा ध्यान रखते थे।
उनके पुत्र देवदास ने कढ़ी-खिचड़ी लेने के लिए अपना भोजनपात्र रखा । गाँधीजी (Mahatma Gandhiji) ने उससे पूछा :- ” देवा ! तुझे तो बिना नमक का खाना है न ?? “
देवदास ने सकुचाते हुए उत्तर दिया :- ” आज मेरा कढ़ी खाने का मन हो रहा है । “
गाँधीजी ने उससे पूछा :- ” बिना नमक का भोजन लेने का तेरा व्रत कब पूरा होता है ?? “
देवदास ने उत्तर दिया :- ” अभी दस दिन बाकी हैं । “
गाँधीजी बोले :- ” तो फिर लिया हुआ व्रत तू कैसे तोड़ सकता है ?? तेरी प्रतिज्ञा तोड़ने में मैं हिस्सेदार नहीं बनूँगा । “
देवदास ने कहा :- ” मैं बिना नमक का भोजन खाने की अवधि और आगे बढ़ा लूँगा परंतु आज मेरा मन खिचड़ी-कढ़ी खाने का है । “
गाँधीजी :- ” नहीं, खिचड़ी-कढ़ी तुझे नहीं मिलेगी । रोटी, टमाटर या दूध, दही आदि तू जितना चाहे ले ले । “
गाँधीजी का निश्चय सुनकर देवदास रो पड़े। सारे विद्यार्थी जिज्ञासा के साथ देख रहे थे कि इसका क्या परिणाम होता है ??
गाँधीजी विचार में पड़ गये कि क्या किया जाये ?? यह तो मन की कमजोरी है, क्या पुत्र-मोहवश इसका पोषण करें ???
ऐसा तो नहीं करना है।
फिर क्या करें ???????
एकाएक अपने गाल पर जोर से दो तमाचे लगाकर बोले :- ” देवा ! तुझमें यह कमजोरी कहाँ से आयी…. ??? मुझसे ही तो तूने सीखा है ।”
देवदास के लिए इतना ही काफी था ।
वे बोले :- ” बापूजी ! मुझे माफ़ कीजिये । मुझे खिचड़ी-कढ़ी नहीं चाहिए । “
इस प्रसंग से सारे विद्यार्थी व्रत-रक्षा की गम्भीरता को समझ गये । मन कैसा चंचल है, कितना कमजोर है, वह किस तरह हम पर चढ़ बैठता है और किस तरह उसको कामयाब नहीं होने देना है….. सभी बातों की शिक्षा विद्यार्थियों को मिल गयी ।
संयम-नियम से चलने में प्रारंभ में भले ही थोड़ी कठिनाई हो परंतु यदि नियमनिष्ठ बने रहें और लिए हुए व्रत की रक्षा करते रहें तो यही सर्वांगीण विकास में सफलता दिलाते हैं ।