गुरु-सन्देश~ गुरुकृपा ही केवलम् शिष्यस्य परम् मंगलम् ।
श्रीमद् आद्यशंकरचार्यजी (Jagadguru Shri Adi Shankaracharya) बचपन से ही बहुत शांत, धीर और तीक्ष्ण बुद्धि के थे। वे श्रुतिधर थे अर्थात् सुनी या पढ़ी हुई हर बात उनकी स्मृति में अंकित हो जाती थी। जब वे ७ वर्ष के हुए तब इनके पिता का देहांत हो गया।
बालक शंकर ने मात्र ७ वर्ष की उम्र में ही वेदों का अध्ययन कर डाला। एक दिन कुछ ज्योतिषवेत्ता ब्राह्मण शंकर के यहाँ अतिथिरूप में आये। उन्होंने शंकर की जन्मपत्री देखकर बताया कि “ये परिव्राजक होंगे परंतु ये स्वल्पायु हैं । आयु के ८वें, १६वें और ३२वें वर्ष में मृत्युयोग है।”
यह सुनकर माँ के हृदय पर वज्रपात हुआ परंतु बालक शंकर के मन में विचार उठने लगा कि ‘बिना आत्मज्ञान के मुक्ति नहीं है ।’ उनकी आयु ८ वर्ष थी, इसी समय मृत्युयोग था। अतः उन्हें सन्यास लेने की व्याकुलता रहने लगी। एक दिन मौका देखकर उन्होंने माँ के सामने संन्यास लेने की बात उठायी। घर में अकेली माँ और उसकी आँखों का तारा बालक शंकर था। वह इसे संन्यासी कैसे बनने दे ?
माँ बोली :”बेटा ! इस संसार में तुम्हारे सिवा मेरा तो और कोई नहीं है । तुम्हारे संन्यासी होकर घर छोड़ के चले जाने पर मुझे कौन देखेगा ?”
परंतु शंकर के मन में संन्यास लेने की व्याकुलता बढ़ती गयी। एक दिन वे अपनी माँ के साथ नदी में स्नान कर रहे थे। एक मगर ने शंकर को पकड़ लिया। उन्होंने बहुत प्रयास किया लेकिन मगर छोड़ ही नहीं रहा था। तब उन्होंने पुकार लगायी :”माँ ! मुझे एक मगर पानी में लिए जा रहा है। अब मेरा अंत समीप है। मुझे एक संन्यासी के रूप में मृत्यु को प्राप्त होने दो।”
पुत्र की करुण पुकार सुन माँ बिलखते हुए बोली :”ठीक है,आज्ञा देती हूँ ।”
बालक शंकर ने तुरंत आतुर-संन्यास ले लिया और मगर ने उन्हें छोड़ दिया लेकिन माँ की ममता पुत्र को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी। शंकर ने कहा :”माँ ! तुमने आज्ञा दी तभी मैंने आतुर-संन्यास लिया है । आपके कथन को मिथ्या नहीं होने दे सकता ! मुझे गृहत्याग तो करना ही होगा।”
माँ फूट-फूटकर रोने लगी,बोली :”बेटा ! तुम चले जाओगे तो मेरा भरण-पोषण कौन करेगा ? मरने के बाद मुझे अग्नि कौन देगा ?”
शंकर :”माँ ! आप इसकी चिंता न करें। स्वजनों को बुलाकर संपत्ति का भार उन्हें सौंप देता हूँ और आपके भरण-पोषण की व्यवस्था कर देता हूँ ।
आपके आशीर्वाद से मैं योगसिद्धि लाभ व तत्वज्ञान प्राप्त करूँगा। अंत समय में आप मुझे स्मरण करियेगा, उस समय मैं कहीं भी क्यों न रहूँ तत्काल आकाशमार्ग से आपके पास आ जाऊँगा। यह मैं आपकी शपथ खाकर कहता हूँ।”
माँ की आज्ञा प्राप्त करके बालक शंकर सद्गुरु की खोज में निकल पड़े और सद्गुरु गोविंदपादाचार्यजी की शरण में पहुँचे। उनसे संन्यास की विधिवत् दीक्षा लेकर वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया। गुरुकृपा से आगे चलकर बालक शंकर जगद्गुरु आद्यशंकराचार्यजी (Jagadguru Shri Adi Shankaracharya)
के नाम से प्रसिद्ध हुए और धर्म-जागृति के क्षेत्र में उन्होंने बहुत ही व्यापक कार्य करके समाज का उत्थान किया।
~लोक कल्याण सेतु/अप्रैल 2016