Chhatrapati Shivaji Maharaj: Ek Adarsh Rajyakarta, Parakrami, Prajahit Samrat: सत्रहवीं शताब्दी में हिन्दुस्तान में मुगल शासकों का अत्याचार, लूटमार बढ़ती जा रहा था । हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया जा रहा था । मुगलों के अतिरिक्त पुर्तगालियों व अंग्रेजों ने भी भारत भूमि में अपने कदम जमाने शुरू कर दिये थे । परिस्थितियों के आगे घुटने टेक रहा हिन्दू समाज नित्यप्रति राजनैतिक तथा धार्मिक दुरावस्था की ओर अग्रसर हो रहा था । सबसे भयंकर प्रहार हमारी संस्कृति पर हो रहा था । धन व सत्ता की हवस की पूर्ति में लगे ये हैवान हमारी बहू-बेटियों की इज्जत भी सरेआम नीलाम कर रहे थे । ऐसी विषम परिस्थिति में वर्तमान महाराष्ट्र के पूना जिले में वि.सं. १६८७ की चैत्र कृष्ण तृतीया को शिवाजी महाराज का आविर्भाव शाहजी के घर में हुआ ।
बचपन से ही माता जीजाबाई ने रामायण – महाभारत, उपनिषदों व पुराणों से धैर्य, शौर्य,धर्म व मातृभूमि के प्रति प्रेम आदि की कथा गाथाएँ सुनाकर उनमें इन सद्गुणों के साथ-साथ अदम्य प्राणबल फूँक दिया था । जिसके परिणामस्वरूप १६ वर्ष की नन्ही अवस्था में ही उन्होंने हिन्दू स्वराज्य को स्थापित कर उसका विस्तार करने का ध्रुव संकल्प ले लिया और अपने सुख-चैन, आराम की परवाह किये बिना धर्म, संस्कृति व देशवासियों की रक्षा के लिए अनेकों जोखिम उठाते हुए विधर्मी ताकतों लोहा लेने लगे । उन्होंने प्रबल पुरुषार्थ, दृढ़ मनोबल, अदम्य उत्साह एवं अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए भारतभूमि पर फैल रहे मुगल शासकों की जड़ें हिलानी शुरू कर दीं । शत्रु उन्हें अपना काल समझते थे । वे शिवाजी को रास्ते से हटा के लिए नित्य नये षड्यंत्र रचते रहते । छल, बल कपट आदि किसी भी प्रकार के कुमार्ग का अनुसरण करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी थी परंतु शत्रुओं को पता नहीं था कि जिसका संकल्प दृढ़ व इष्ट मजबूत होता है उसका अनिष्ट दुनिया की कोई ताकत नहीं सकती । शिवाजी विवेक की जगह विवेक, बल की जगह बल तथा इन दोनों से परे परिस्थितियों में ईश्वर एवं गुरु निष्ठा का सहारा लेते हुए शत्रुओं को मुँहतोड़ जवाब देते ।
बचपन में माँ ने संतों के प्रति श्रद्धा के जो बीज वीर शिवाजी के मन-मस्तिष्क में बोये उन्होंने आगे चलकर विराट रूप धारण किया । इस महान योद्धा के मुखमंडल पर शूरवीरता एवं गंभीरता झलकती थी परंतु हृदय ईश्वर एवं संत निष्ठा के नवनीत से पूर्ण था । समय-समय पर वे संतों-महापुरुषों की शरण में जाते और उनसे ज्ञानोपदेश प्राप्त करते, जीवन का सार क्या है इसे जानने का यत्न करते ।
एक दिन वे संत तुकाराम जी के दर्शन, सत्संग व आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु देहू ग्राम में गये । वे इन ईश्वरनिष्ठ महापुरुष से इतने प्रभावित हुए कि इनसे कृपा याचना करने लगे परंतु दूरदृष्टिसंपन्न संत तुकारामजी उन्हें विभिन्न कलाओं से संपन्न लोकसंत समर्थ जी की शरण में जाने की सलाह दी । संत तुकारामजी के एक अभंग में भी इसका उल्लेख मिलता है :
राजा छत्रपती । एकावें वचन । रामदासीं मन । लावीं वेगें ॥१॥
रामदास स्वामी । सोयरा सज्जन । त्यासी तन मन । अर्पी बापा ॥२॥
मारुती अवतार । स्वामी प्रगटला । उपदेश देईल । तुजलागी ॥३॥
हे छत्रपति राजा ! मेरी बात मानो और तुरंत समर्थ रामदासजी की भक्ति में अपना मन लगाओ । रामदास स्वामी शरण में आये हुए भक्तों को आश्रय देनेवाले सज्जन संत हैं । अतः उन्हें अपना तन-मन-धन अर्थात् सर्वस्व अर्पण करो । रामदास साक्षात् मारुति के अवतार हैं, वे तुम्हें उपदेश देंगे इसमें कोई संदेह नहीं है ।
धर्मनिष्ठ शिवाजी समर्थ रामदासजी के चरणों में गये व उनसे अनुग्रह की याचना की । समर्थजी ने उन्हें विधियत् मंत्रदीक्षा दी और कहा “इस संसार में आया का हुआ हर व्यक्ति सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा है, अतः तुम भी वही परमात्मा हो । मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव न करते हुए तुम्हें राजधर्म का पालन करना चाहिए ।”
शिवाजी महाराज गुरु-उपदेश को शिरोधार्य कर “मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं” पर अंतिम क्षणों तक अडिग रहे ।
एक बार शिवाजी महाराज ने अपने गुरुदेव से राज्य के लिए शुभ चिह्न माँगा । तब समर्थजी ने अपने शरीर का लपेटा हुआ भगवा वस्त्र उन्हें दिया । महाबुद्धिमान वीर शिवाजी ने उस वस्त्र को अपने स्वराज्य की निशानी जाया । वह भगवा ध्वज मराठा राज्य के अंत तक उसकी निशानी बना रहा ।
शिवाजी महाराज के नजदीक के तथा दूर के अधिकांश रिश्तेदार मुस्लिम शासकों की सेना में थे ।
अपने सुख-चैन की परवाह किये बिना कर्मयोगी शिवाजी अनवरत राज्य क्रांति में लगे रहे । कई हारे हुए हिन्दू राज्यों को पुनः जीतकर उन्होंने एकछत्र राज्य की स्थापना की ऐसा संघर्षपूर्ण जीवन बिताते हुए भी उन्होंने अपने सद्गुरु समर्थजी एव संत तुकारामजी आदि महापुरुषों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी ।
वे शत्रुओं के लिए तो खतरनाक जाँबाज थे परंतु अपनी प्रजा के लिए प्रेम के अवतार थे । उनकी प्रजा के प्रति हित की भावना से गद्गद हो कभी-कभी समर्थ उन्हें ‘प्रजाहितदक्ष’ के नाम से सम्बोधित करते । इस प्रजाहितदक्ष सम्राट ने गाँवों के भोले-भाले, निरीह किसानों के हितों का खूब ख्याल रखा । युद्ध के लिए निकलने वाले सैनिकों को वे खास हिदायत देते: “रास्ते में आने वाली जनता को किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचना चाहिए । खेतों में खड़ी फसल का पत्ता भी आप में से किसी को छूना तक नहीं चाहिए ।”
उनके हाथों परहित के अगणित कार्य अविरत होते चले गये । उनकी शासन-व्यवस्था में समाज की बहू-बेटियों की इज्जत प्रतिष्ठा का विशेष ध्यान रखा जाता था । मनचले युवकों को वे कड़ी से कड़ी सजा देने में चूकते नहीं थे । फारसी के दबदबे के कारण लुप्त हो रही संस्कृत की गरिमा को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने संस्कृत का प्रचलन शुरू किया । जबरन मुसलमान बनाये गये हिन्दुओं का शुद्धिकरण कर उनकी पुनः हिन्दू समाज में वापसी करायी । अपने सद्गुरु एवं महापुरुषों की सेवा करते हुए वे धर्मरक्षण व प्रजा कल्याण के पुनीत कार्य में जीवन के अंतिम क्षण तक लगे रहे । आज लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष बीत जाने पर भी शिवाजी महाराज न केवल शासकों के लिए अपितु समस्त विश्व के लोगों के लिए एक अति उज्ज्वल प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
– ऋषि प्रसाद, मार्च 2007