पद्मासन के बाद सिद्धासन का स्थान आता है । अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करने वाला होने के कारण इसका नाम सिद्धासन पड़ा है । सिद्ध योगियों का यह प्रिय आसन है । यमों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है, नियमों में शौच श्रेष्ठ है वैसे आसनों में सिद्धासन श्रेष्ठ है ।
ध्यान आज्ञाचक्र में और श्वास, दीर्घ, स्वाभाविक ।
सिद्धासन के अभ्यास से शरीर की समस्त नाड़ियों का शुद्धिकरण होता है । प्राणतत्व स्वाभाविकतया ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता है । फलतः मन को एकाग्र करना सरल बनता है ।
पाचनक्रिया नियमित होती है । श्वास के रोग, हृदय रोग, जीर्णज्वर, अजीर्ण, अतिसार, शुक्रदोष आदि दूर होते हैं । मंदाग्नि, मरोड़ा, संग्रहणी, वातविकार, क्षय, दमा, मधुप्रमेह, प्लीहा की वृद्धि आदि अनेक रोगों का प्रशमन होता है । पद्मासन के अभ्यास से जो रोग दूर होते हैं वे सिद्धासन के अभ्यास से भी दूर होते हैं ।
ब्रह्मचर्य-पालन में यह आसन विशेष रूप से सहायक होता है । विचार पवित्र बनते हैं । मन एकाग्र होता है । सिद्धासन का अभ्यासी भोग-विलास से बच सकता है । 72 हजार नाड़ियों का मल इस आसन के अभ्यास से दूर होता है । वीर्य की रक्षा होती है । स्वप्नदोष के रोगी को यह आसन अवश्य करना चाहिए ।
योगीजन सिद्धासन के अभ्यास से वीर्य की रक्षा करके प्राणायाम के द्वारा उसको मस्तिष्क की ओर ले जाते हैं जिससे वीर्य, ओज तथा मेधाशक्ति में परिणत होकर दिव्यता का अनुभव करता है । मानसिक शक्तियों का विकास होता है ।
कुण्डलिनी शक्ति जागृत करने के लिए यह आसन प्रथम सोपान है ।
सिद्धासन में बैठकर जो कुछ पढ़ा जाता है वह अच्छी तरह याद रह जाता है । विद्यार्थियों के लिए यह आसन विशेष लाभदायक है । जठराग्नि तेज होती है । दिमाग स्थिर बनता है जिससे स्मरणशक्ति बढ़ती है ।
आत्मा का ध्यान करने वाला योगी यदि मिताहारी बनकर बारह वर्ष तक सिद्धासन का अभ्यास करे तो सिद्धि को प्राप्त होता है । सिद्धासन सिद्ध होने के बाद अन्य आसनों का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता । सिद्धासन से केवल या केवली कुम्भक सिद्ध होता है । छः मास में भी केवली कुम्भक सिद्ध हो सकता है और ऐसे सिद्ध योगी के दर्शन-पूजन से पातक नष्ट होते हैं, मनोकामना पूर्ण होती है । सिद्धासन के प्रताप से निर्बीज समाधि सिद्ध हो जाती है । मूलबन्ध, उड्डीयान बन्ध और जालन्धर बन्ध अपने आप होने लगते हैं ।
सिद्धासन जैसा दूसरा आसन नहीं है, केवली कुम्भक के समान प्राणायाम नहीं है, खेचरी मुद्रा के समान अन्य मुद्रा नहीं है और अनाहत नाद जैसा कोई नाद नहीं है ।
सिद्धासन महापुरूषों का आसन है । सामान्य व्यक्ति हठपूर्वक इसका उपयोग न करें, अन्यथा लाभ के बदले हानि होने की सम्भावना है ।
आसन पर बैठकर पैर खुले छोड़ दें । अब बायें पैर की एड़ी को गुदा और जननेन्द्रिय के बीच रखें । दाहिने पैर की एड़ी को जननेन्द्रिय के ऊपर इस प्रकार रखें जिससे जननेन्द्रिय और अण्डकोष के ऊपर दबाव न पड़े । पैरों का क्रम बदल भी सकते हैं । दोनों पैरों के तलुवे जंघा के मध्य भाग में रहें । हथेली ऊपर की ओर रहे, इस प्रकार दोनों हाथ एक दूसरे के ऊपर गोद में रखें । अथवा दोनों हाथों को दोनों घुटनों के ऊपर ज्ञानमुद्रा में रखें । आँखें खुली अथवा बन्द रखें । श्वासोच्छोवास आराम से स्वाभाविक चलने दें । भ्रूमध्य में, आज्ञाचक्र में ध्यान केन्द्रित करें । पाँच मिनट तक इस आसन का अभ्यास कर सकते हैं । ध्यान की उच्च कक्षा आने पर शरीर पर से मन की पकड़ छूट जाती है ।