वकालत की परीक्षा पास करने के बाद तिलक जी कोई उच्च सरकारी नौकरी करने के बजाय एक विद्यालय में शिक्षक के पद पर रहना पसंद किया ।
सम्बन्धियों और मित्रों को यह बात अच्छी न लगी कि इतना पढ़ने के बाद तिलक जी एक सामान्य शिक्षक बनें ।
एक मित्र ने उनसे कहा :”स्वतंत्र वकालत करने या सरकारी विभाग के उच्च पद पर नौकरी करने के बदले आप विद्यालय में सामान्य अध्यापक बनें, यह हमें जरा भी पसन्द नहीं । सरकारी विभाग में नौकरी करते तो अच्छी तनख्वाह व प्रतिष्ठा दोनों मिलती ।”
तिलक जी (Lokmanya Bal Gangadhar Tilak Ji) बोले :- “मैं मोटी तनख्वाह व प्रतिष्ठा के लोभ से अंग्रेजों का गुलाम नहीं बनना चाहता और स्वतंत्र वकालत भी नहीं करना चाहता । वकालत के व्यवसाय में क्षण क्षण झूठ का आश्रय लेकर पैसे के लोभ में सत्य का खून करूँ यह मुझसे नहीं होगा । किसी भी परिस्थिति में मैं सच्चाई का त्याग नहीं कर सकता । मैं अपनी शैक्षिक योग्यता का उपयोग देश के बालकों के जीवन निर्माण में करना चाहता हूँ । वेतन और प्रतिष्ठा लोकहित से बढ़कर नहीं । तीस रूपये मासिक वेतन वाली शिक्षक की इस नौकरी से मै मरते वक़्त तक कुछ बचा नहीं सकूँगा और कफ़न के लिए भी मेरे पास पैसा नहीं होगा ऐसा बहुत लोग मुझसे कहते हैं लेकिन उसकी चिंता मै किसलिए करूँ ? ग़ाँव की पंचायत मेरे शव को कहीं पड़ा तो नहीं रहने देगी न ? अंतिम संस्कार की जवाबदारी पंचायत की है,फिर उसकी चिंता मै किसलिए करूँ ?
सीख :-अपनी व्यक्तिगत सुविधा को त्यागकर तिलक जी ने हमेशा परहित को प्राथमिकता दी। जनसेवा में ही उन्होंने अपना सारा जीवन अर्पित कर दिया ।
तभी तो देश उन्हें “लोकमान्य तिलक” (Lokmanya Tilak) के नाम से आज भी याद करता है ।
संकल्प- हम भी देश की सेवा में तन-मन अर्पित करेंगे ।
~लोक कल्याण सेतु /अंक १२४