महाभारत (शांति पर्व :२७.३१) में आता है :
‘आलस्य सुखरूप प्रतीत होता है पर उसका अंत दुःख है तथा कार्यदक्षता दुःखरूप प्रतीत होती है पर उससे सुख का उदय होता है । इसके आलावा ऐश्वर्य, लक्ष्मी, लज्जा, धृति और कीर्ति – ये कार्यदक्ष पुरुष में ही निवास करती हैं, आलसी में नहीं ।’

परमहंस योगानंदजी का एक शिष्य आलसी था । एक दिन योगानंदजी ने उसे समझाया कि “आलस्य मनुष्य के लिए मृत्यु के बराबर है इसलिए आलस्य करना बुरी बात है ।”

शिष्य ने जवाब दिया : “गुरुदेव ! मैं तो पहली ही बार आलस्य कर रहा हूँ ।”

“इसका मतलब यह तो नहीं है न कि अब तुम्हें आलस्य करने का अधिकार ही मिल गया है ! आज यदि तुम आलस्य कर रहे हो तो कल भी करोगे । इस तरह से आलस्य में पड़े रहने में लाभ क्या है ?”

“गुरुदेव ! मात्र एक बार के आलस्य से भी पतन सम्भव है ?”

योगानंदजी बोले : “एक पतन हजार पतन को निमन्त्रण देता है । आलस्य, विलास, विकारों की भी यही परम्परा है । एक बार यदि तुमने इन्हें अपना लिया तो ये हमेशा के लिए तुम्हारे मन में बस जायेंगे । अच्छा यही होगा कि तुम इनसे हमेशा दूर रहो । ये मनुष्य की योग्यता के परम शत्रु हैं ।”

बच्चों को यह दोहा कंठस्थ करवायें –


आलस कबहुँ न कीजिये, आलस अरि सम जानि ।
आलस से विद्या घटे, बल-बुद्धि की हो हानि ।।

📚लोक कल्याण सेतु/अप्रैल २०१७