संवत् १८१५ में डूँगरपुर (प्राचीन गिरिपुर) गाँव (राज.) में एक कन्या का जन्म हुआ, नाम रखा गया गवरी। ५-६ साल की उम्र में ही उसका विवाह कर दिया गया। विवाह के एक वर्ष बाद ही उसके पति का देहांत हो गया।

थोड़े समय बाद माँ और फिर पिता भी चल बसे। 

संसार के संबंधों की नश्वरता को गवरीबाई ने प्रत्यक्ष देखा, उनको संसार फीका लगने लगा । उन्होंने  भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना सब कुछ मान लिया। वे गीता, भागवत, रामायण, उपनिषद् आदि ग्रंथ पढ़तीं। भगवान के प्रति भजन के रूप में निकले उनके भाव लोगों को ईश्वर की याद से भर देते । गवरीबाई के श्री कृष्ण भक्ति परक पदों में संत मीराबाई के समान माधुर्यभाव व विरह की परिपूर्णता रहती। 

गवरीबाई के परम सौभाग्य का उदय तो तब हुआ जब उन्हें एक आत्मज्ञानी ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष की शरण मिली। उनके गुरुदेव ने उन्हें ब्रह्मज्ञान व योगदर्शन का उपदेश दिया।      

संसार से उपराम और सुख-भोगों की अनासक्ति से युक्त गवरीबाई के परिपक्व हृदय में गुरु के वचन गहरे उतर जाते । सुनते-सुनते वे अहोभाव से भर जातीं और घंटों उसी भाव में खोयी रहतीं । वे कहती थीं :

 हरि नाम बिन और बोलना क्या,
 हरि कथा बिना और सुनना क्या।
 सुखसागर समालिओ त्यागी,
 कूप डाब में डालना क्या। 
घट गिरधर गिरधर पाया, 
बाहेर द्रांग अब खोलना क्या। 
आत्मा अखंड आवे न जावे,
जन्म नहीं तो फिर मरना क्या।
न गवरी ब्रह्म सकल में जाना,
जाना तो जद खोलना क्या।

गवरी बाई गुरु-महिमा का वर्णन करते हुए कहती हैं

ज्ञानघटा घेरानी अब देखो,
    सतगुरु की कृपा भई मुझ पर
 शब्द ब्रह्म पहचानी ।

गवरी बाई पर गुरुकृपा ऐसी बरसी कि उनके लिए अब भगवान केवल श्री कृष्ण की मूर्ति तक ही सीमित न रहे, गुरु ज्ञान ने उनके अज्ञान-आवरण को चीर डाला और उन्हें घट-घट में परमात्मा के दीदार होने लगे। वे कहती हैं:
 ‘पूरे ब्रह्मांड का स्वामी सर्वव्यापक हरि ही है। चौदह भुवनों में बाहर, भीतर सर्वत्र वही समाया हुआ है। चाँद में चैतन्य भी वही है। सूरज में तेज भी वही है। ऐसे हरि को भजे बिना दसों दिशाएँ सूनी लगती हैं। हे प्रभु ! तुम्हारा न कोई निश्चित रूप है, न रंग, न वर्ण है। तुम ॐकारस्वरूप हो, तुम निराकार रूप हो । न तुम माया हो न कर्म । उस प्रकार गवरीबाई लिखती हैं कि उनके गुरु के उपदेशों से उन्हें ज्ञान का प्रकाश प्राप्त हुआ है। उस प्रकाश से अज्ञान का अंधकार समाप्त हो गया है।        

गवरीबाई ने अपने गुरुदेव से जो ज्ञान पाया था उसकी झलक उनके पदों में छलक रही है ~

आत्मज्ञान विना प्राणी ने सुख न थाऊ रे,
आत्मज्ञान विना मन विश्राम न पाऊ रे,
आत्मज्ञान विचार विना न पावे मुक्ति रे,
आत्मज्ञान विना कोई अड़सठ तीर्थ नाहे रे,

 ~ ऋषि प्रसाद अप्रैल २०१८