Review and Repeat your Goal/ Target/ Lakshya Every Mornig (Subha ki Prayer) : ईश्वर के साक्षात्कार जैसा सरल और कोई काम नहीं है। जो वास्तविक ‘मैं’ है उसमें टिकने के लिए ओंकार अथवा जिस देव में प्रीति है उसका गुरुप्रदत्त मंत्र (गुरुमंत्र) जपते-जपते उसके अर्थ में लीन होते जायें ताकि दूसरे अनर्थकारी संस्कार, अनर्थकारी आकर्षण हटते जायें।
यदि अनर्थकारी संस्कार ही सार दिखते हैं और सोचते हैं : ‘भजन तो करेंगे किंतु जरा इतना कर लूँ…पेंशन आयेगी फिर आराम से भजन करूँगा। ‘ तो पेंशन की पराधीनता रहेगी और बुढ़ापा आयेगा तो शरीर तो दुखेगा ही। फिर उसको ठीक करने में ही जीवन पूरा हो जायेगा। तो अब क्या करें ? अभी इसी समय आप तड़प जगाइये और अपने असली
‘मैं’ को पहचानिये।
बेठीक को ठीक करने का जो भूत घुसा है उसको निकालना ही परमात्म-प्राप्ति कहलाता है जो सोचते हैं : ‘जरा बेटी की शादी हो जाय… बेटा घर संभालने के लायक हो जाय… जरा यह हो जाय… जरा वह हो जाए… समझो, वे मूर्ख बालक की नाई आकाश की रक्षा कर रहे हैं। संसार की विघ्न-बाधाएँ, परिस्तिथियाँ अवश्यंभावी हैं। सम, शांत ‘मैं को पहचानना ही महान पौरुष है। कुटुंबी के शरीर के लिए तुम कितना भी करो, वह तो जीर्ण-शीर्ण और बीमार होता ही रहेगा ऐसे ही कुछ लोग सोचते हैं: ‘इन शरीरों की रक्षा करूँ फिर आराम से भजन करना…’ नहीं, बेटे या बेटी, पति या पत्नी का आत्मा तो शाश्वत है। उस शाश्वत आत्मा को जानने पहचानने में लग जाओ।
हम लोग गलती यह करते हैं कि शरीर के लिए सारी सुविधाएँ जुटाकर फिर भजन करना चाहते हैं। यह तो सुविधाजनित सुख है, गुलामी का सुख है, आत्मा का सुख नहीं है। सुविधाजनित सुख तो यहाँ से ज्यादा स्वर्ग में है। किंतु वहाँ सुख भोगते-भोगते पुण्य क्षीण हो जाते हैं और फिर किसी के गर्भ में आना पड़ता है। जहाँ से सुख आता है यदि उस ‘मैं’ को एक बार पहचान लें तो फिर गर्भवास का दुःख सहना नहीं पड़ेगा।
~ ऋषि प्रसाद – सितम्बर २००४