एक बार किसी राजा के नगर में नट-दम्पति ने खेल दिखाना आरम्भ किया । राजा का स्वभाव से बहुत ही कृपण था । उसे खेल तो अच्छा लग रहा था पर मन में डर था कि अगर वह खेल की सराहना करेगा तो उसे कुछ-न-कुछ देना पड़ेगा । काफी देर बाद नटनी ने थककर इशारे से अपने पति को कहा:~
” रात घड़ी भर रह गई, पिंजर थाक्या आय ।
यो राजा रीझै नहीं, मधरी ताल बजाय ।।
तो नट बोला :~
बहुत गयी थोड़ी रही, थोड़ी भी अब जाय ।
नट कहै सुण नटणी, ताल भंग क्यों खाय ।।
नट का इतना कहना था कि राजकुमारी ने अपने गले का हार नट की तरफ फेंक दिया । राजकुमार ने भी अपना दुशाला नट को दे दिया ।
बाद में राजा ने राजकुमारी से पूछा :- ” तूने अपना बहुमूल्य हार नट को क्यों दे दिया ? “
राजकुमारी :- ” पिताजी ! आप अपने अत्यंत कृपण स्वभाव के कारण मेरा विवाह नहीं कर रहे थे तो मै कल सारे ज़ेवरात व कुछ धन लेकर दीवान-पुत्र के साथ भागना चाह रही थी । परंतु नट के वचनों ने मेरी आँखे खोल दीं । थोड़े से वर्षों के लिए ताल भंग क्यों खाय ? मैने अपनी योजना ढहा दी और इस नट को हितकारी वचन सुनाने के एवज में अपना हार दे दिया । “
राजकुमार के पूछने पर उसने कहा :- ” आपके अत्यंत कृपण स्वभाव के कारण मै किसी प्रकार की सुख-सुविधा नहीं भोग पा रहा था । अतः मै आपको मारकर राजगद्दी पर बैठना चाहता था । लेकिन नट के वचनों ने मेरा हृदय परिवर्तित कर दिया इसलिए मैने उसे अपना दुशाला उतारकर दे दिया । “
राजा को अपने जीवन के प्रति बड़ी ग्लानि हुई…. दूसरे ही दिन उसने राजकुमारी का विवाह दीवान-पुत्र के साथ करा दिया और अपने पुत्र को राज्य सौंपकर स्वयं ईश्वर-भजन में लग गया । ईश्वर हमें किसी न किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्तिथि को माध्यम बनाकर, नट-नटी को माध्यम बनाकर अपने परम सुखस्वरूप की ओर लगाना चाहते हैं, जरूरत है तो बस आँख खुली रखने की, विवेक सजग रखने की ।
लोक कल्याण सेतु/अक्टूबर 2016