मनुष्य-जीवन में जितने भी माने हुए संबंध हैं – पति-पत्नी, भाई-बहन, पिता-पुत्र आदि वे सभी काल्पनिक हैं, मोहवश हैं किंतु गुरु-शिष्य का संबंध वास्तविक संबंध है क्योंकि यह वास्तव में जीवात्मा परमात्मा का संबंध है । व्यक्ति के सारे माने हुए संबंध मोह पैदा करते हैं, उसे बंधन में डालते हैं किंतु गुरु-शिष्य का संबंध शिष्य का मोह तोड़कर उसके हृदय में छिपे शिवस्वरूप को प्रकट कर देता है, उसे मुक्त कर देता है।
इस पावन संबंध की महिमा को उजागर करनेवाली एक कथा नाभाजी महाराज कृत ‘भक्तमाल’ में आती है।
गुरु बोधायनजी के सान्निध्य में आत्मोन्नति साध रहे थे उनके एकनिष्ठ शिष्य श्री गंगाधराचार्य । गंगाधराचार्य अपने गुरु में भगवद् बुद्धि रखते थे तथा उनकी सेवा में दिन-रात तत्पर रहते थे।
एक बार संयोगवश गुरुजी को सत्संग के लिए बाहर गाँव जाना था। शिष्य ने गुरुजी से प्रार्थना की : “गुरुदेव मुझे अपने साथ ले चलो ।”
गुरुजी ने कहा : “तुम यहीं आश्रम में रहो और आश्रम में आये भक्तों, साधु-संतों की सेवा करो । तुम्हारा जो भाव मेरे में है, वही भाव गंगाजी में रखो ताकि तुम्हें उसमें मेरे नित्य दर्शन हों। “
शिष्य गंगाधराचार्य ने अपने गुरु की बात मान ली और सेवा में लग गये।
प्रातः सभी शिष्य गंगास्नान करने गये पर गंगाधराचार्य ने गंगाजी में स्नान नहीं किया। गंगाजी को दंडवत् प्रणाम कर वे अब नित्य कुएँ के जल से स्नान करने लगे। यह देखकर अन्य शिष्यों ने गंगाधराचार्य से पूछा : “तुम पवित्र गंगाजी में स्नान करना छोड़कर इस कुएँ के जल से क्यों स्नान करते हो ?”
उन्होंने कहा : “मुझे गुरुजी ने गंगाजी में गुरुभाव करने को कहा है, तब मैं गंगाजी में पैर कैसे रख सकता हूँ?”
पर अन्य शिष्यों ने गंगाधराचार्य के इन हार्दिक भावों का आदर नहीं किया । उन्हें कुछ का-कुछ समझाने लगे पर गंगाधराचार्य डिगे नहीं। थोड़े दिन बाद गुरुजी आये तो सभी शिष्यों ने कहा : “गुरुजी ! जबसे आप गये हैं तबसे गंगाधर ने गंगाजी में स्नान छोड़कर कुएँ के पानी से स्नान चालू कर दिया है।”
गुरुजी शिष्य के मनोभावों को जान गये कि गंगाजी में गुरुभाव रखने के कारण यह अपने शरीर के अंग उसमें नहीं डुबो रहा है। वे गंगाधराचार्य की गुरुनिष्ठा पर भीतर-ही-भीतर प्रसन्न हुए व अन्य शिष्यों को उनकी निष्ठा का परिचय देने के लिए एक लीला की।
एक दिन बोधायनजी अपने सभी शिष्यों के साथ गंगा-स्नान के लिए गये। गंगाधर गुरुजी का अँगोछा लिये हुए किनारे पर उनके बाहर आने का इंतजार कर रहे थे। गुरुजी ने गंगाधर से कहा : “अँगोछा लेकर जल्दी यहाँ आ जा।’
गंगाधर के भावों की रक्षा करने के लिए गंगाजी ने प्रकट होकर कहा : “तू घबरा मत । इन कमलपत्रों पर पैर रखकर गुरुजी के पास जा और अँगोछा दे दे।” उन्हें कमलपत्रों पर चलते देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गये गंगाधर अँगोछा देकर वापस किनारे आ गये। सभी गुरुभाई और गंगा-किनारे स्नान करने आये अन्य भक्त गंगाधर को प्रणाम करने लगे पर गंगाधर ने इसमें गुरु की लीला का ही अनुभव किया।
गुरु-वचनों में प्रगाढ़ श्रद्धा रखनेवाले शिष्य के भावों की रक्षा के लिए गंगाजी भी सहायक हो गयीं !
– लोक कल्याण सेतु, जुलाई-अगस्त 2006