स्वामी रामतीर्थ की ख्याति अमेरिका में दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी। लोग उन्हें ‘जिन्दा मसीहा’ कहते थे और वैसा ही आदर-सम्मान भी देते थे। कई चर्चा, क्लबों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देने के लिए उन्हें बुलाया जाता था।
उनके व्याख्यानों में बहुत भीड़ होती थी। बड़े बड़े प्राध्यापक, दार्शनिक, वैज्ञानिक, वकील, धार्मिक जनता और पादरी इत्यादि सभी प्रकार के लोग उनके विचार सुनने के लिए आया करते थे। कभी-कभी तो इतनी भीड़ हो जाती थी कि हॉल में खड़े होने तक की जगह नहीं रहती थी। इस भीड़ में पुरुष महिलाएँ सभी सम्मिलित होते थे। कभी-कभी पुरुषों से महिलाएँ ही अधिक हो जाया करती थीं, जो बहुत ध्यान से स्वामी रामतीर्थ का व्याख्यान सुनती थीं।
व्याख्यान के अंत में स्वामी रामतीर्थ श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर भी देते थे। एक शाम को एक सुंदर युवती ने अपने प्रश्नों के लिए स्वामी रामतीर्थ से अलग समय माँगा। स्वामीजी ने उसको दूसरे दिन सुबह मिलने को कहा।
दूसरे दिन वह युवती स्वामी रामतीर्थ से मिलने के लिए उनके निवासस्थान पर आयी। उसने स्वामीजी से कहा: “मैं एक धनाढ्य पिता की पुत्री हूँ। मैं संसारभर में आपके नाम से कॉलेज, स्कूल, पुस्तकालय और अस्पताल खोलना चाहती हूँ। सारी दुनिया में आपके नाम से मिशन खुलवा दूंगी और प्रत्येक देश तथा नगर में आपके वेदान्त के प्रचार का सफल प्रबंध करवा दूंगी।”
स्वामी रामतीर्थ ने उसके उत्तर में इतना ही कहा कि “दुनिया में जितने भी धार्मिक मिशन हैं, वे सब राम के ही मिशन हैं। राम अपने नाम की छाप से कोई अलग मिशन चलाना नहीं चाहता, क्योंकि राम कोई नयी बात तो कहता नहीं। राम जो कुछ कहता है, वह शाश्वत सत्य है। राम के पैदा होने से हजारों वर्ष पूर्व वेदों और उपनिषदों ने दुनिया को यही संदेश सुनाया है, जो राम आप लोगों के समक्ष यहाँ अमेरिका में प्रस्तुत कर रहा है। अतः राम को अपने नाम से अलग मिशन चलाने की कोई लालसा नहीं है। नाम तो केवल एक ईश्वर का ही ऐसा है, जो सदा-सदा रहेगा। व्यक्तिगत नाम तो ओस की बूँद की तरह नाशवान है।”
उस युवती ने जब बार-बार खैराती अस्पताल और कॉलेज इत्यादि खोलने की बात की और भारतीय विद्यार्थियों की सहायता की बात कही, तब स्वामी रामतीर्थ ने बहुत शांतिपूर्ण ढंग से पूछा कि “आखिर आपकी आंतरिक इच्छा क्या है ? आप चाहती क्या हैं ?”” इस सीधे प्रश्न पर उस युवती ने स्वामी रामतीर्थ को घूरकर देखा, कुछ झिझकी व शरमायी। फिर रहस्यमय चितवन से देखकर मुस्करायी और बोली कि ‘मैं कुछ नहीं चाहती। केवल मैं अपना नाम मिसेज राम लिखना चाहती हूँ। मैं आपके नजदीक-से नजदीक रहकर आपकी सेवा करना चाहती हूँ। बस, केवल इतना ही कि आप मुझे अपना लें।”
स्वामी रामतीर्थ अपने स्वभाव के अनुसार खिलखिलाकर हँस पड़े और बोले : “राम न तो मास्टर है, न मिस न मिस्टर है, न मिसेज। जब राम मिस्टर ही नहीं तो उसकी मिसेज होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।”
वह युवती लज्जित होकर व्याकुल हो उठी। उसकी प्यारभरी एक मुस्कराहट से अन्य लोग अपनी सुध खो बैठे थे और यह भारतीय स्वामी उसकी प्रार्थना का यों अनादर कर रहा है ! वह खीझकर बोली : “जब तुम मास्टर और मिस्टर, कुछ नहीं हो तो तुम क्या हो ?”
स्वामी रामतीर्थ फिर मुस्कराये और बोले : “राम एक मिस्ट्री है, एक रहस्य है।” वह युवती अब बिल्कुल बौखला उठी: “नहीं, नहीं
राम, मैं फिलॉसफी नहीं चाहती। मैं तुम्हें दिल से प्यार करती हूँ। मुझे आत्महत्या से बचाओ। मैं तुमसे नजदीक का रिश्ता चाहती हूँ।”
स्वामी रामतीर्थ शांतिपूर्वक बोले : “ठीक है, मुझे मंजूर है।” युवती के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी। स्वामी रामतीर्थ ने कहा कि “मैं तुमसे नजदीक-से-नजदीक तो हूँ ही । कहने को हम दोनों अलग-अलग दिखलायी देते हैं, किंतु आत्मा के रिश्ते से हम-तुम दोनों एक ही हैं।
इससे और ज्यादा नजदीक का रिश्ता क्या हो सकता है ?” युवती इस उत्तर से पागल हो उठी। वह कहने लगी : “फिर वही फिलॉसफी !” उसने परेशानी दिखलाते हुए कहा कि “मैं आत्मा का रिश्ता नहीं चाहती। मैं तुमसे शारीरिक नजदीकी का (हाड़-मांस का) रिश्ता चाहती हूँ। राम ! मुझे निराश मत करो। मैं तुमसे प्यार की भीख माँगती हूँ। बस, और कुछ नहीं।”
स्वामी रामतीर्थ शांत भाव से बैठे थे। वे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने कहा : “जानती हो हाड़ और मांस का नजदीक-से-नजदीक का रिश्ता माँ और बेटे का ही होता है। माँ के खून और हाड़ मांस से बेटे का खून और हाड़-मांस बनता है। बस, आज से तुम मेरी माँ हुई और मैं तुम्हारा बेटा।”
यह उत्तर सुनकर युवती ने अपना माथा पीट लिया और बोली : “You have completely defeated me, Swamiji. (अर्थात् आपने मुझे पूर्ण रूप से परास्त कर दिया।)
राम ! तुम्हारा दिल पत्थर का है। सचमुच पागल हो जाऊँगी। मैं क्या करूँ स्वामी, मैं क्या करूँ ?” युवती ने अपनी दोनों हथेलियाँ अपनी दोनों आँखों पर रखीं और फूट-फूटकर रोने लगी। उधर स्वामी रामतीर्थ ने भी अपनी आँखें बंद कर लीं और वे समाधिस्थ हो गये।
जब उनकी समाधि खुली तो उन्होंने देखा कि वह युवती कमरे से बाहर जा चुकी थी।
उस घटना के पश्चात् मनोरीना नाम की वह युवती बराबर स्वामी रामतीर्थ के व्याख्यानों में आती तो रही, किंतु दूर एक कोने में बैठकर रोती रहती थी। एक दिन स्वामी रामतीर्थ ने व्याख्यान के
पश्चात् उसे अपने पास बुलाकर बहुत समझा बुझाकर शांत कर दिया। बाद में वह स्वामी रामतीर्थ की भक्त बन गयी और उनकी इन्डो-अमेरिकन सोसाइटी की एक प्रमुख संरक्षक भी रही।
– ऋषि प्रसाद, जुलाई 2004