ब्रह्मचर्य का वास्तविक अर्थ
- वास्तव में ‘ब्रह्मचर्य’ (Brahmacharya – Celibacy) शब्द का अर्थ है ‘ब्रह्म के स्वरूप में विचरण करना ।’ जिसका मन नित्य-निरंतर सच्चिदानंद ब्रह्म में विचरण करता है, वही पूर्ण ब्रह्मचारी है ।
- इसमें प्रधान आवश्यकता है – शरीर, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि के बल की । यह बल प्राप्त होता है वीर्य की रक्षा से । इसलिए सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ही ब्रह्मचर्य व्रत (Brahmacharya Vrat) का पालन करना कहा जाता है । अतः बालकों को चाहिए कि न तो ऐसी कोई क्रिया करें, न ऐसा संग ही करें तथा न ऐसे पदार्थों का सेवन ही करें जिससे वीर्य की हानि हो, जैसे चाय-कॉफी, तम्बाकू आदि का सेवन ।
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- सिनेमा में प्रायः कुत्सित दृश्य दिखाए जाते हैं इसलिए बालक-बालिकाओं को सिनेमा कभी नहीं देखना चाहिए और सिनेमा-थिएटर में नट-नटी तो कभी बनना ही नहीं चाहिए । इस विषय के साहित्य (उपन्यास, पत्रिकाएँ आदि), विज्ञापन और चित्रों को भी नहीं देखना-पढ़ना चाहिए । इसके प्रभाव से स्वास्थ्य और चरित्र की बड़ी भारी हानि होती है और दर्शकों-पाठकों का घोर पतन है सकता है ।
- लड़के-लड़कियों का परस्पर का संसर्ग (समीपता) भी ब्रह्मचर्य में बहुत घातक है । अतः इस प्रकार के संसर्ग का भी त्याग करना चाहिए तथा लड़के भी दूसरे लड़के तथा अध्यापकों के साथ गंदी चेष्टा, संकेत, हँसी मजाक और बातचीत करके अपना पतन कर लेते हैं, इससे भी लड़कों को बहुत ही सावधान रहना चाहिए । लड़के-लड़कियों को न तो परस्पर किसी को (काम दृष्टि से) देखना चाहिए, न कभी अश्लील बातचीत ही करनी चाहिए और न हँसी-मजाक ही करना चाहिए ।
- क्योंकि इससे मनोविकार उत्पन्न होता है ।
- प्रत्यक्ष की तो बात ही क्या, सुंदरता की दृष्टि से स्त्री के चित्र को पुरुष और पुरुष के चित्र को कन्या या स्त्री कभी न देखे ।
तुम चाहे कितनी भी मेहनत करो किंतु जितना तुम्हारी नसों में ओज है , ब्रह्मचर्य की शक्ति है उतने ही तुम सफल होते हो ।
– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
– पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
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