वैदिक युग में आदर्शनिष्ठा की मूर्तिमंत नमूनेदार एक घटना भी मिलती है ।
पंडित वाचस्पति मिश्र वेदांत के एक महान ग्रंथ की रचना कर रहे थे। नवोढ़ा पत्नी एकासन में कार्यरत अपने पति को उनके स्थान पर ही भोजन-पानी वगैरह देती थी ।
सूर्यास्त होने पर दीया प्रकटा-कर, हाथ में रखकर पति के पीछे खड़ी रहती थी। जिससे उसके प्रकाश में पंडितजी का लेखन कार्य चलता रहे ।धर्मपत्नी की ऐसी अविरत सेवा और ऋषि के लेखन-साधना के 16 साल बीत गए। एक शाम संध्या को दीपक प्रकटाते ही बुझ गया । इससे काम अटक गया, तब ऋषि की नजर पीछे घूम कर ऊपर की ओर जाती है । स्त्री को वहाँ खड़ी देखते हैं और परिचय पूछते हैं, क्योंकि 16 साल से उसे देखा ही नहीं था । उत्तर मिला कि “मैं आपकी सहधर्मिणी हूँ। सेवा में क्षति आ गई उसे क्षम्य मानना।”
ऋषि को चोट लगती है कि मेरी पत्नी को विवाह करके आए हुए 16 साल बीत गए मैंने उसकी तरफ देखा भी नहीं, फिर भी नहीं फरियाद की…ना ही कोई विषाद… उल्टे प्रसन्नतापूर्वक कैसी सेवा की और इसमें कैसा संयम है ! उनकी महानता को वंदन करके,अभिनंदन करके अपने उस ग्रंथ को पत्नी का नाम ‘भामती’ देकर उसे अर्पण करते हैं।
ऋषि की उत्कट लेखन-साधना, ऋषि पत्नी की पति-सेवा का पुनित आदर्श – ऐसी दोनों की अपने-अपने कार्य की धुन ने यौवन में 16-16 साल ब्रह्मचर्यपालन किस सहजता से, सरलता से कर दिखाया – इसका यह एक प्रेरक उदाहरण है।
लोक कल्याण सेतु/जन.-फर.२००६