What is Holi Festival and Why is it Celebrated [History of Hol

What is Holi Festival and Why is it Celebrated [History of Holi Festival]

  • सनातन धर्म में होली हिन्दुओं का राष्ट्रीय, सामाजिक और आध्यात्मिक पर्व है । इस पर्व के पीछे सद्वृत्ति में अडिग प्रह्लाद की सफलता दिखती है और वरदान पायी होलिका असत् वृत्ति का आचरण करती है तो उसका विनाश होता है यह दिखता है । यह सामाजिक पर्व इसलिए माना गया कि समाज के लोग चाहे किसी भी जाति के हों पर इन दिनों होली का रंग उछालते हुए अपना बाह्य भेदभाव मिटाकर प्राकृतिक एकता का संदेश देते हैं ।
  • इस पर्व ने हमारे शारीरिक विज्ञान का भी खयाल रखते हुए हमारे शारीरिक स्वास्थ्य को उत्तम बनाने की व्यवस्था सँजोयी है ।
  • होली के दिनों में चने और गेहूँ की फसल तैयार हो जाती है । भारत के कुछ क्षेत्रों में गाँव के लोग गड्ढा खोद के उसमें धान से भरा मटका रखते हैं और गड्ढा भर के उस पर होली जलाते हैं । फिर वह अर्धभुना धान दूसरे दिन प्रसादरूप में बाँटते हैं ।
  • अर्धभुने धान को खाना वात व कफ के दोषों का शमन करने में सहायक होता है । अर्धभुने अनाज को ‘होला’ कहा जाता है । ऋषि-पद्धति का कैसा ऊँचा दृष्टिकोण है कि इन दिनों में लोग होला जैसा प्राकृतिक आहार खाकर वातशामक शक्ति प्राप्त करें । कफ आदि दोषों से शरीर में जो पीड़ा होती हो, उसका भी ये भूने हुए चने आदि शमन करते हैं । खजूर,नारियल-पाक और मेथी-पाक आदि गरिष्ठ पदार्थ खाने के दिन होली से पूरे हो जाते हैं ।
  • इसके साथ-साथ प्रह्लाद की-सी अडिगता जिसके जीवन में है, उसके जीवन में हजार विघ्न बाधाएँ आने पर भी अंत में विजय उसी की होती है । सद्वृत्ति छोटी होती है, सात्विक रास्ते चलने वालों की संख्या छोटी होती है लेकिन वे चलते रहें तो आसुरी संख्या वाले बहुत होने के बावजूद भी उनका आसुरी स्वभाव ही उनके विनाश का कारण बन जाता है । युद्ध में 100 कौरवों में से एक भी बचा नहीं और 5 पांडवों में से एक भी मरा नहीं । अतः सात्विकता, सज्जनता के विचारों वाले व्यक्ति को पीछे नहीं हटना चाहिए यह इस त्यौहार से हमें पता चलता है ।
  • जो भी कोई संस्था, व्रत, पर्व प्रारम्भ होते हैं तो उनके पीछे दिव्य दृष्टि होती है लेकिन जितना जितना हल्की वृत्ति के लोग उसमें सम्मिलित होते जाते हैं उतनी-उतनी उन संस्थाओं, व्रत, नियम, पद्धतियों में कुछ गड़बड़ आती जाती है । धुलेंडी के दिन कीचड़ उछालना, धूल उछालना, जूतों का हार पहनना-पहनाना, गधों पर बिठाना-बैठना और गंदे स्वांग करना… इससे हमारी मानसिक वृत्तियाँ बहुत नीची हो जाती हैं । हमें सामाजिक व मानसिक हानि होती है । तमाम प्रकार के हानिकर्ता रंग एक-दूसरे को लगाने से आँखों, चेहरे, त्वचा व पूरे शरीर पर भी हानिकारक प्रभाव पड़ता है । और कई जगहों पर तो अश्लील वातावरण पैदा हो जाता है, कामुकता के तुच्छ विचार व व्यवहार होने से इस पर्व के लाभ के बजाय समाज को हानि हो जाती है ।
  • हकीकत में यह पर्व फाल्गुन शुक्ल एकादशी से प्रारम्भ होना चाहिए और भगवान का श्रीविग्रह रथ में रखकर रथयात्रा निकालनी चाहिए । बाकी के चार दिनों में पूनम तक प्रतिदिन प्रभातफेरी, जप, ध्यान, हरि चर्चा, हरि कीर्तन, साधु-समागम, ध्यान आदि करके हम बाह्य भेदभाव मिटाकर मूल में जो अभेदता है वहाँ आयें – इस पर्व का उद्देश्य था ।
  • होली वर्षभर की बाह्य ‘मैं-तू’ की पकड़ छुड़ाकर निखालिस (निर्दोष, निष्कपट) बनने का संदेश देती है और अगले दिन आने वाली धुलेंडी होली का रंग लगा के ‘अहं’ और ‘मम’ को धूल में मिलाने का संदेश देती है । जैसे बाह्य रंग वस्त्रों को रँगता है, ऐसे ही भक्ति का रंग तुम्हारे सूक्ष्म शरीर को रँगता है और आत्मज्ञान का रंग तुम्हारे कारण शरीर को रँगता है और तुम जीवन्मुक्त हो जाते हो, तुम्हारी अहंता और ममता धूल में मिल जाती है । इसलिए आज तक का जो जन्म-मरण का बहीखाता था, वह सब धूलधानी (नष्ट) हो गया, शायद इसकी याद के लिए धुलेंडी मनायी गयी होगी ।
    – लोक कल्याण सेतु, फरवरी 2017