बस अड्डे पर एक हट्टे-कट्टे युवक व पैडल रिक्शावाले बूढ़े चाचा में कुछ बहस हो रही थी । लोगों के लिए यह नयी बात न थी क्योंकि भाड़े के मोल-भाव को लेकर नोक-झोंक होती रहती थी । काफी देर तक बहस होते देख आखिर कुछ लोग वहाँ इकट्ठे हो गये पर यह क्या ? यहाँ पर मामला कुछ और ही निकला !
युवक रिक्शावाले से कह रहा था : “मैं किराया तो दूँगा पर रिक्शा मैं खुद चलाऊँगा ।”
रिक्शावाला : “फिर मेरी क्या मेहनत ? मैं बिना मेहनत का पैसा नहीं ले सकता ।”
“बाबा ! रिक्शा आपका है इसलिए आय भी आपकी होगी ।”
“यह तो उचित नहीं कि मेहनताना लूँ मैं और मेहनत करो तुम ।”
“बाबा ! आप मेरे दादाजी की उम्र के हैं, आप रिक्शा चलायें और मैं आराम से बैठूं – यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा । मेरे पास इतना भारी सामान है, आपको बहुत मेहनत पड़ेगी । आप बूढ़े हैं, मैं युवक हूँ – इस कारण से भी कृपया मुझे रिक्शा चलाने दीजिये ।”
लोगों को हुआ कि कलह तो हमने बहुत देखे हैं लेकिन ऐसा मधुर कलह हमें कहीं भी देखने को नहीं मिला । यहाँ घर्षण तो हो रहा था लेकिन दोनों के हृदय में और देखनेवालों के हृदय में भी आत्मिक शीतलता की फुहार बरस रही थी । आखिर मानवीय संवेदना का पलड़ा भारी साबित हुआ और बूढ़े रिक्शा चालक को युवक की बात पर राजी होना पड़ा । चालक सामान लेकर आराम से बैठ गया और मुसाफिर चालक की गद्दी पर बैठकर बड़े आनंद से रिक्शा चलाता आगे निकल गया । देखनेवालों का हृदय गद्गद हो गया कि कैसे हैं हमारी संस्कृति के संस्कार !
– लोक कल्याण सेतु, जनवरी 2016