A Short Story of Guru Hargobind Sahib Ji in Hindi from Biography

Story of Guru Hargobind Sahib Ji from Biography in Hindi

  • सिक्खों के छठवें गुरु श्री हरगोविंदसिंहजी के बारे में भाई गुरुदासजी ने कहा है :

अरजन काईया पलटि कै मूरति हरिगोविंद सवारी ।
दलभंजन गुर सूरमा वड जोधा बहु पर उपकारी ।।

  • संवत् 1652 में आषाढ़ कृष्ण पक्ष 6 को गाँव वडाली, जिला अमृतसर में पंचम गुरु श्री अर्जुनदेवजी के घर माताश्री गंगा देवीजी की कोख से गुरु हरगोविंदसिंहजी का जन्म हुआ ।
  • मात्र 11 वर्ष की उम्र में आपको गुरुगद्दी पर विराजित किया गया । श्री गुरु अर्जुनदेवजी की शहादत के बाद पुरातन गुरु-मर्यादा के अनुसार सेली एवं माला-फकीरी के चिह्न धारण करने की जगह श्री गुरु हरगोविंदसिंहजी ने दो तलवारें, एक दायें एक बायें तरफ धारण की ।
  • इसका कारण बताते हुए आपने कहा था : ‘‘अब भक्ति के साथ शूरवीरता का होना भी ज़रूरी है इसलिए शूरवीरता के चिह्न धारण करने की आवश्यकता है । केवल सेली तथा माला अपनाने का अब यह समय नहीं रहा ।’’
  • उनकी ये तलवारें ‘मीरी’ और ‘पीरी’ के नाम से विख्यात हैं । कैसे होते हैं महापुरुष ! वर्तमान समाज की उन्नति जिसमें निहित हो, उसी के अनुसार उनकी चेष्टाएँ होती हैं ।
  • गुरु हरगोविंदसिंहजी भक्ति के साथ-साथ शूरवीरता का भी उपदेश देते थे । वे स्वयं घुड़सवारी एवं अस्त्र-शस्त्र का भी अभ्यास करते थे । इसी प्रकार अपने भक्तों से भी करवाते थे ।
  • उस वक्त दिल्ली के तख्त पर जहाँगीर था । जहाँगीर का दीवान चंदू अपनी बेटी की शादी हरगोविंदसिंहजी से करवाना चाहता था लेकिन अर्जुनदेवजी ने यह रिश्ता ठुकरा दिया था ।
  • अतः द्वेषवश चंदू जहाँगीर के कान भरता रहता था कि : ‘‘गुरु अर्जुनदेव का पुत्र हरगोविंदसिंह अपने पिता की शहीदी का बदला लेने के लिए जंग का सामान तथा सेना इकट्ठी कर रहा है । उसने गद्दी लगाकर बैठनेवाली अपनी पुरानी मर्यादा छोड़कर अपने बैठने के लिए तख्त बना लिया है । उस तख्त पर बैठकर बादशाहों की तरह अदालत लगाता है तथा आदेश देता है । फकीर होकर तख्त पर बैठना ? तख्त बादशाहों के लिए होते हैं, फकीरों के लिए गद्दियाँ होती हैं । वह अपने-आपको सच्चा बादशाह कहलाता है । उसको अगर अभी वश में न किया गया तो फिर वह किसी दिन भी हुजूर की बादशाही को खतरा पैदा कर सकता है ।’’
  • चंदू की ऐसी उकसानेवाली बातें सुनकर जहाँगीर ने हरगोविंदसिंहजी को दिल्ली बुला लिया एवं ग्वालियर के किले में कैद करवा दिया । उस समय ग्वालियर का किला मुगल बादशाहों के विरोधियों तथा राजघरानों के लिए एक बहुत प्रसिद्ध बंदीगृह बना हुआ था । जो एक बार इसमें बंद किया जाता था वह फिर मरकर ही बाहर निकलता था ।
  • इससे माता को चिंता हो गयी एवं उन्होंने साँईं मियाँ मीरजी के पास संदेश भिजवाया । जहाँगीर साँईं मियाँ मीरजी की बड़ी इज्जत करता था । अतः जब उनके द्वारा चंदू की शिकायत की असलियत का पता चला तब जहाँगीर ने हरगोविंदसिंहजी को रिहा करने का आदेश दे दिया । किन्तु हरगोविंदसिंहजी अकेले रिहा कैसे होते ?
  • उस वक्त उस किले में 52 राजपूत राजा एवं राजघराने के लोग भी कैद थे, जो खुसरो की मदद करने के आरोप में बंदी थे । गुरु हरगोविंदसिंहजी ने उनसे बादशाह के प्रति वफादार रहने का वचन लेकर तथा जहाँगीर को स्वयं उनकी वफादारी का भरोसा देकर उनको भी कैद में से छुड़वाया । इस परोपकार के परिणामस्वरूप ये ‘बंद छोड़ पीर’ के नाम से पहचाने जाने लगे । कहा जाता है कि : इसकी यादगार के रूप में ग्वालियर के किले में एक चबूतरे पर आज भी ‘बंद छोड़ पीर’ का बोर्ड लगा हुआ है ।
  • रिहाई के बाद जहाँगीर प्रगट तौर पर गुरु हरगोविंदसिंहजी से प्रेम करता था किन्तु भीतर से उन पर भरोसा नहीं करता था । जहाँगीर ने उनके पिता गुरु अर्जुनदेवजी को कष्ट दे-देकर मरवाया था । उसको भय था कि : ‘कहीं ये अपने पिता का वैर लेने के लिए मुझसे आज़ाद होकर मेरे विरुद्ध कोई बगावत न कर दें ।’ इसलिए जहाँगीर हमेशा उन्हें अपनी निगरानी में ही रखना चाहता था किन्तु यह कब तक संभव हो पाता ?
  • संवत् 1684 में जहाँगीर की मृत्यु हुई । उसका बड़ा पुत्र शाहजहाँ दिल्ली के तख्त पर बैठा । शाहजहाँ की सेना के साथ गुरु हरगोविंदसिंहजी के चार युद्ध हुए । प्रत्येक युद्ध में यवनों की सेना कई गुना ज्यादा होते हुए भी विजय गुरु हरगोविंदसिंहजी की ही हुई । सच है, जहाँ धर्म होता है वहाँ विजय होती ही है ।
  • अंतिम युद्ध संवत् 1691 के बाद उन्होंने अपना निवास-स्थान कीरतिपुर में बना लिया एवं दूर-दूर जाकर सिक्ख धर्म का प्रचार किया । कश्मीर, पीलीभीत, बार और मालवा देशों में जाकर लाखों लोगों को आपने मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर किया । आप अनेकों मुसलमानों को सिक्खी-मण्डल में ले आये एवं देश-देशांतरों में उदासी प्रचारकों को भेजकर श्रीगुरु नानकदेवजी का झंडा फहराया ।
  • संवत् 1701 में चैत्र शुक्ल पक्ष 5 तदनुसार 3 मार्च 1644 को आपने अपने योग्य पोते श्री हरिरायजी को गुरुगद्दी सौंपकर परलोकगमन किया ।
    – ऋषि प्रसाद, जून 2001