जिसने अपने में ही आत्मतृप्ति का अनुभव कर लिया हो उसे कभी कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। वे जहाँ भी रहते हैं वहाँ अपनी महिमा में ही मस्त रहते हैं।

एक बार पूज्य बापूजी (साईं श्री लीलाशाहजी महाराज – Sai Lilashah Ji Maharaj) नैनिताल के बस स्टैण्ड पर बैठकर नश्वर दुनिया के मायावी खेल को देख रहे थे।
उस समय सभी कुली एक ओर बैठकर हुक्का-बीड़ी पीते-पीते मौज से एक-दूसरे के साथ गप-शप कर रहे थे। इतने में अचानक वे लोग आपस में लड़ने लगे। पूज्य बापूजी को हुआ कि अचानक ये लोग लड़ने क्यों लगे ? पूछताछ करने पर पता चला कि वे लोग मिलकर एक मकान किराये पर ले रहे थे। मकान का किराया 32 रूपये था। 15 कुलियों ने प्रत्येक व्यक्ति के दो रूपये के हिसाब से 30 रूपये इकट्ठे किये किन्तु दो रूपये कम पड़े वह कौन दे ? इस विषय में झगड़ा हो रहा था।

उस जमाने में गरीब मजदूरों के लिए दो रूपये निकालना बड़ी बात थी। पूज्य बापू के पास उस समय नैनिताल में रहने के लिए कोई आश्रम या मकान नहीं था। पूज्य बापूजी ने कुलियों से कहाः
“अरे भाई ! तुम दो रूपये मेरे पास से ले लेना। 15 लोग तुम और 16 वाँ साथी मुझे बना लो। हम सोलह किरायेदार हो जायेगें और 32 रूपये किराया। क्यों? अब तो मामला निपट गया न?”

इस प्रकार पूज्य बापूजी ने 2 रूपयों में ‘मेम्बरशिप’ ले ली और कई वर्षों तक गर्मी के समय में वे उन लोगों के साथ रहे। वे 15 डोटियाल (कुली) और सोलहवें ये महान संत !

वे महा पवित्र हो गये थे। अनंत-अनंत ब्रह्मांडों के ये बेपरवाह बादशाह उन कुलियों के साथ रहे। अब कोई भी अपवित्रता उन्हें छू भी नहीं सकती थी। कहा जाता है कि लोहे के टुकड़े को मिट्टी में रखोगे तो जंग लगेगा। उसे धो-पोंछकर, सँभालकर अटारी पर रखोगे तो भी हवा लगने से पुनः जंग लग जायेगा किन्तु उस टुकड़े को एक बार पारसमणि का स्पर्श हो जाये फिर भले ही उसे अटारी पर रखो या कीचड़ में फेंक दो, उसे जंग नहीं लगेगा। पूज्य बापूजी भी भले गुफा में रहें या कुलियों के बीच रहें, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। जिसने अपने में ही आत्मतृप्ति का अनुभव कर लिया हो उसे कभी कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। वे जहाँ भी रहते हैं वहाँ अपनी महिमा में ही मस्त रहते हैं।

श्री भोले बाबा ने ठीक ही कहा हैः
रहता सभी के संग पर, करता न किंचित् संग है।
है रंग पक्के में रंगा, चढ़ता न कच्चा रंग है।
है आपमें संलग्न, अपने आपमें अनुरक्त है।
है आपमें संतुष्ट सो, इच्छा बिना ही मुक्त है।।

~जीवन सौरभ साहित्य से