ब्रह्मलीन मातुश्री श्री माँ महंगीबा जी का महानिर्वाण दिवस : 1 नवंबर

 पूजनीया मातुश्री माँ महँगीबा जी ( अम्मा ) गुरुभक्ति व गुरुनिष्ठा के महान इतिहास की एक प्रेरणादायी स्वर्णिम अध्याय हैं। पूज्य बापूजी में उनकी निष्ठा और गुरुआज्ञा पालन का भाव अद्भुत था।

एक बार कुम्भ मेले के अवसर पर पूज्य बापूजी हरिद्वार में रुके हुए थे। वहाँ उन्होंने अम्मा को भी कुछ दिनों के लिए बुलाया था। अम्मा की शारीरिक स्थिति का ध्यान रखते हुए पूज्यश्री ने संदेश भिजवाया था कि ʹअम्मा के स्वास्थ्य के लिए प्रातःभ्रमण करना हितकारी है।ʹ परंतु अम्मा के लिए जहाँ निवास की व्यवस्था की गयी थी, वहाँ आसपास का रास्ता बहुत पथरीला था, जिससे अम्मा को सैर करने में अत्यंत कठिनाई होती थी। फिर भी संदेशा पाने के बाद अम्मा ने नियमित रूप से रोज सैर करना प्रारम्भ कर दिया। पूज्यश्री को जब इस बात का पता चला कि रास्ता पथरीला है तो उन्होंने एक सेवक को अम्मा के लिए जूते की व्यवस्था करने के लिए कहा।

आज्ञानुसार सेवक जूते ले गया परंतु जूते कुछ आधुनिक ढंग के थे। जहाँ वर्तमान में जूते पहनना लोगों की दिनचर्या का एक सामान्य हिस्सा है, वहीं सीधा-सादा व परम्परागत जीवन जीने वाली अम्मा को जूते पहनने में जरा संकोच हो रहा था। अतः वह नित्य चप्पल पहनकर ही सैर करने जातीं।

कुछ दिनों बाद बापू जी सुबह-सुबह अम्मा का स्वास्थ्य पूछने उऩके निवास स्थान पर आये और अम्मा के पैरों में चप्पल देखते ही बापू जी ने जूते न पहनने का कारण पूछा।

तब अम्मा ने बड़ी मर्यादा से कहाः “साँईं ! मुझे जूते आदि की क्या जरूरत ?? क्यों उन्हें लाने का कष्ट किया !! मेरा काम तो इन सादी-सूदी चप्पलों से ही चल जायेगा। और दूसरा, जूते पहनना मुझे दिखावटी बनने जैसा लगता है।”

तब बापू जी ने अम्मा जी को समझाया कि “इसमें दिखावटी बनने जैसी कोई बात नहीं है। चप्पल पहनने से आपके पैरों को जो कष्ट होता है वह जूते पहनने से नहीं होगा। आप निःसंकोच जूते पहना करो।”

इस पर अम्मा जी के हृदय में बड़ी व्यथा हुई कि ʹगुरुदेव को जूते पहनने का निर्देश दो बार देने का कष्ट हुआ और मुझे समझाना भी पड़ा।ʹ

पूरा जीवन अत्यंत सादा-सूदा, परम्परागत ढंग से बिताने वाली उन सादगी मूर्ति देवी ने लोकलज्जा का संकोच त्याग कर गुरु-वचन को सिर-आँखों पर लगाया और ऐसी दृढ़ता के साथ जीवन में धारण किया कि उनके जीवन के अंत तक अम्मा के चरणों को स्पर्श करने का सौभाग्य चप्पलों ने हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। तब से सभी ने अम्मा को जूते ही पहनते देखा।

हे माँ ! हे साक्षात् श्रद्धास्वरूपिणी ! धन्य है आपकी गुरुनिष्ठा ! धन्य है आपकी अनन्य श्रद्धा ! धन्य है आपका जीवन, जिसमें पूज्य गुरुदेव का हर वचन एक व्रत, एक नियम बन जाता था ! अम्मा के जीवन में सुशोभित गुरुनिष्ठा का यह सुंदर सदगुण प्रत्येक साधक के लिए साधना में सफलता का एक आधारस्तम्भ है। इससे आपके भी जीवन में श्रद्धा, विश्वास, अडिगता और समपर्ण के दिव्य पुष्प महक उठेंगे और सात्त्विक सूझबूझ व मन की गुलामी से बचने का सम्बल मिलेगा। 

 📚मधुर संस्मरण साहित्य से