परब्रह्म परमात्मा के साथ एकत्व के अनुभव को उपलब्ध स्वामी रामतीर्थ (Swami Ramtirth) देश-विदेश में घूम-घूमकर ब्रह्मविद्या का उपदेश देते थे। बात फरवरी सन् 1902 की है। ‘साधारण धर्मसभा, फैजाबाद’ के दूसरे वार्षिकोत्सव से स्वामी रामतीर्थ भी पधारे।

स्वामी जी तो वेदान्ती थे। ‘सबमें ब्रह्म है, सब ब्रह्म में है, सब ब्रह्म है। मैं ब्रह्म हूँ, आप भी ब्रह्म हैं, ब्रह्म के सिवाय कुछ नहीं है।’-इसी सनातन सत्य ज्ञान की पहले दिन उन्होंने व्याख्या की।

श्रोताओं में एक सज्जन श्री नौरंगमल भी मौजूद थे। उनके पास एक मौलवी मोहम्मद मुर्तजा अली खां (Maulvi Mohammad Murtaza Ali Khan) बैठे थे। नौरंगमलजी ने मौलवी साहब से कहाः “सुनते हो मौलाना ! यह युवक क्या कह रहा है ? कहता है कि मैं खुदा हूँ।”

यह सुनकर मौलवी साहब आपे से बाहर हो गये और कहने लगेः “अगर इस वक्त मुसलमानी राज्य होता तो मैं फौरन इस काफिर की गर्दन उड़ा देता, किंतु अफसोस ! मैं यहाँ मजबूर हूँ।”

दूसरे दिन मौलवी साहब फिर धर्मसभा में आये, वहाँ सुबह का सत्संग चल रहा था। मंडप श्रद्धालुओं से भरा हुआ था। स्वामी रामतीर्थ फारसी में एक भजन गा रहे थे, जिसका मतलब थाः ‘हे नमाजी ! तेरी यह नमाज है कि केवल उठक-बैठक ? अरे ! नमाज तो तब है जब तू ईश्वर के विरह में ऐसा बेचैन और अधीर हो जाय कि तुझे न बैठते चैन मिले और न खड़े होते। असली नमाज तो तभी कहलायेगी, नहीं तो यह केवल कवायद (नियम) मात्र है।”

स्वामी रामतीर्थ (Swami Ramtirth)यह भजन बिल्कुल तल्लीन होकर गा रहे थे और उनकी आँखों से आँसू झर रहे थे। उस समय उनके चेहरे से अलौकिक तेज बरस रहा था। मौलवी साहब स्वामी रामतीर्थ की उस तल्लीनता, भगवत्प्रेम और भगवत्समर्पण से बहुत प्रभावित हुए।

भजन समाप्त होते ही मौलवी अपनी जगह से उठे और स्वामी रामतीर्थ के पास पहुँचकर अपने वस्त्रों में छुपाया हुआ एक खंजर (कटार) निकालकर उनके कदमों में रख दिया और बोलेः “हे राम ! आप सचमुच राम हैं। मैं आज इस वक्त बहुत बुरी नीयत से आपके पास आया था। मैं आपका गुनहगार हूँ। मुझे माफ कर दीजिये। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ।”

स्वामी रामतीर्थ (Swami Ramtirth) मुस्कराये और बोलेः “क्यों गंदा बंदा बनता है ! जो तू है वही तो मैं हूँ। मैं तुझसे अलग कब हूँ ? जा, आईंदा किसी से भी नफरत मत करना क्योंकि सबके भीतर वही सर्वव्यापी खुदा मौजूद है। हालाँकि तू उससे बेखबर है पर वह तेरी हर बात को जानता है। अपने खयालात पवित्र रख। खुदी को भूल जा और खुदा को याद रख, जो तेरे नजदीक से भी नजदीक है, यानी जो तू खुद है।” – ऐसा कहकर स्वामी जी ने बहुत प्यार से मौलवी के सिर पर हाथ फेरा और मौलवी अपना सिर स्वामी जी के चरणों पर रख बच्चों की तरह रोने लगे।

रोते-रोते मौलवी की आँखें लाल हो गयीं। वे किसी भी प्रकार से स्वामी जी के चरण नहीं छोड़ रहे थे। बस, एक ही रट लगा रखी थीः “मुझे माफ कर दीजिये, मुझे माफ कर दीजिये….!” बड़ी मुश्किल से उन्हें शांत किया गया। तब से वह मौलवी मुहम्मद मुर्तजा अली खाँ उनका अनन्य भक्त हो गया। उसने अपने आपको स्वामी जी के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया और उसका जीवन भक्तिमय हो गया।

ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष सभी के आत्मीय स्वजन हैं। वे किसी को भी अपने से अलग नहीं देखते और प्राणिमात्र पर अपनी करूणा-कृपा रखते हैं। वे सभी का आत्मोत्थान चाहते हैं। वे हमारे अंतःकरण में भरे कूड़े-कचरे को अपने उपदेशों द्वारा बाहर निकाल फेंकते हैं और हमारे हृदय को निर्मल व पवित्र बना देते हैं। वे हमें जीवन जीने की सही राह दिखाते हैं और जीवन को जीवनदाता भगवान की ओर ले जाते हैं।

स्वामी रामतीर्थ (Swami Ramtirth) का रसमय जीवन आज भी दिख रहा है-कहीं कोई बापू जी कहता है, कोई साँईं कहता है परंतु अठखेलियाँ वही सच्चिदानन्द की….. सभी को हरिनाम के द्वारा अपने ब्रह्मसुख का रस प्रदान करने वाले ऐसे कौन हैं इस समय ?
“बा….पू….जी….!”